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हिन्दी का पहला एकांकी

हिन्दी का पहला एकांकी

  • आधुनिक एकांकी पाश्चात्य साहित्य की देन है। यह नाटक-साहित्य का वह नाट्य-प्रधान रूप है, जिसके माध्यम से मानव जीवन के किसी एक पक्ष, एक चरित्र, एक कार्य अथवा एक भाव की कलात्मक व्यंजना की जाती है। 
  • नाटक और एकांकी में वही अन्तर है जो उपन्यास और कहानी में है। 
  • कथावस्तु, पात्र-विधान, संवाद और रंग-संकेत- इसके प्रमुख तत्त्व हैं। 
  • एकांकी में स्थान, काल तथा कार्य के संकलन का निर्वाह आवश्यक माना गया है। 
  • मानव की असंख्य अभिरूचियों के अनुसार एकांकी के विषय भी असंख्य होते हैं। 
  • हिन्दी एकांकी का वास्तविक आरम्भ 1930 ई. से कहा गया है। 
  • सामान्यतः जयशंकर ‘प्रसाद’ के ‘‘एक घूंट’’ (1929) को हिन्दी का पहला एकांकी होने का गौरव दिया जाता है। 
  • पाश्चात्य प्रभाव के कारण हिन्दी एकांकी में विषय और शैली की दृष्टि से निरन्तर परिवर्तन होता रहा है 
  • आधुनिक काल के एकांकी आधुनिक बोध को उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं। 
निबन्ध - 
  • इसका मौलिक अर्थ ‘बाँधना’ या ‘रोकना’ होता है। 
  • हिन्दी में इसके पर्याय रूप में ‘प्रबन्ध’, ‘लेख’, ‘रचना’, एवं प्रस्ताव शब्द प्रचलित हैं। वास्तव में निबंध उस गद्य-रचना को कहा जाता है जिसमें लेखक निर्वैयक्तिक गया है। 
  • हिन्दी निबंध के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जाता है- 
  1. भारतेन्दु-काल (1850-1900), 
  2. द्विवेदी-शुक्ल-काल (1901-1947), 
  3. अधुनातन-काल (1948 के पश्चात्)। 
  • अन्तिम काल में विचारप्रधान, भावप्रधान, प्रतीकात्मक, मनोवैज्ञानिक, हास्य-व्यंग्य-प्रधान, वर्णन-प्रधान इत्यादि अनेक निबंध लिखे गये हैं। आज हिन्दी में निबंध विधा अपने उच्च शिखर पर है।
रेखाचित्र
  • जिस प्रकार कोई चित्रकार थोड़ी-सी रेखाओं के द्वारा सजीव चित्र बना देता है, उसी प्रकार थोड़े-से शब्दों में किसी वस्तु अथवा घटना का चित्रण करना रेखाचित्र कहलाता है। 
  • रेखाचित्रकार का मुख्य उद्देश्य अपनी शब्द-रेखाओं के द्वारा पाठक में संवेदना जाग्रत करना होता है। इसमें अनुभूत जीवन का सत्य व्यक्त होता है। रेखाचित्र में एक ही वस्तु-घटना या चरित्र प्रधान होता है, जिससे सम्बन्धित प्रमुख विशेषताओं को उभारा जाता है। 
  • रेखाचित्र और संस्मरण में विभाजक रेखा खींचना अत्यन्त कठिन है। संक्षेप में रेखाचित्र वस्तुनिष्ठ है और संस्मरण व्यक्तिनिष्ठ। यथार्थ अनुभूति, संवेदनशील दृष्टि, तटस्थता तथा सूक्ष्म निरीक्षण रेखाचित्रकार के आवश्यक गुण हैं। 
  • हिन्दी में 1929 में प्रकाशित पण्डित पद्मसिंह शर्मा के ‘‘पद्म पराग’’ को इस कला का जनक कहा जाता है। इसके बाद हिन्दी रेखाचित्रों में निरन्तर विकास होता रहा । यह नवीन विधा आज बड़ी तीव्रता से विकसित और समृद्ध हो रही है। इसका भविष्य और भी अधिक उज्ज्वल है।
  • इसमें किसी विशेष व्यक्ति अथवा स्थान की विशेषताओं को इस ढंग से प्रस्तुत किया जाता है कि वह अपने आप में एक छोटी-सी इकाई बन जाता है। इसमें कहानी, व्यंग्य-विनोद, वर्णन-विवरण, रेखाचित्र आदि का सम्मिश्रण रहता है। यह व्यक्ति अथवा स्थान के गहरे सम्पर्क के आधार पर ही लिखा जा सकता है। संस्मरण के मूल में अतीत की स्मृतियांँ होती हैं, जो व्यक्तिगत गहन सम्पर्क का परिणाम होती है। संस्मरण- लेखक केवल महत्त्वपूर्ण बातों को ही ग्रहण नहीं करता, वरन् छोटी-से-छोटी घटना को भी लेकर सूक्ष्मता के साथ अंकित कर देता है। लेखक को तटस्थ किन्तु सहानुभूतिपूर्ण वृत्ति रखनी चाहिए। सूक्ष्म विश्लेषण, सजीव चित्रण-शक्ति, सहानुभूति-पूर्ण हृदय तथा सहज स्वाभाविकता संस्मरण के आवश्यक गुण हैं। हिन्दी में संस्मरण-विधा का उद्भव और विकास रेखाचित्र के साथ ही हुआ है। हिन्दी में प्रसिद्ध साहित्यकारों और महापुरूषों से सम्बन्धित संस्मरण ही अधिक लिखे गये हैं, किन्तु समाज के अनिवार्य अंग निम्न वर्ग के व्यक्तियों के संस्मरणों का भी विशेष महत्त्व है। हिन्दी का संस्मरण-साहित्य अपने विविध रंगों और साज-सज्जाओं में समृद्ध होता जा रहा है।

Solved Paper 


आत्मकथा- 
  • जीवनी का ही एक प्रकार है, जिसमें लेखक स्वयं अपने बीते हुए जीवन का सिंहावलोकन करता है, और एक व्यापक पृष्ठभूमि में अपने जीवन का महत्त्व दिखलाता है। 
  • आत्मकथा का उद्देश्य आत्मांकन द्वारा आत्मपरिष्कार एवं आत्मोन्नति करना होता है। लेखक के अनुभवों का लाभ अन्य लोग भी उठा सकते हैं। इसमें लेखक अपने जीवन पर जो प्रकाश डालता है उससे युग- विशेष की मानसिक संरचना का भी उसके जीवन के माध्यम से बोध हो जाता है। 
  • आत्मकथा लेखन के अनेक खतरे हैं। लेखक को आत्मश्लाघा एवं आत्म - संकोच- दोनों से बचना चाहिये। दोषों के उद्घाटन में जहां आत्म-संकोच की प्रवृत्ति बाधक होती है, वहीं आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति उसे अरूचिकर भी बना देती है। तटस्थ रहकर आत्मकथा-लेखक को अपने गुण-दोषों को प्रकट करना चाहिए।
  •  हिन्दी में प्राचीनकाल से आत्मकथा-लेखन की प्रवृत्ति प्रचलित है। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885 ई.) ने आत्मकथा लिखी थी। कालान्तर में अनेक कलात्मक और मनोवैज्ञानिक आत्मकथाएंँ लिखी गई, जिनमें स्वाभाविकता, सत्यवादिता तथा निष्कपट आत्मप्रकाशन के गुण विद्यमान हैं।
  • यात्रा मानव की एक मूल प्रवृत्ति है। ऋतु-परिवर्तन, स्थानों की विविधता, प्रकृति-सौन्दर्य का आकर्षण मानव के मन में उल्लास पैदा करते हैं और इसी उल्लास की भावना से प्रेरित होकर वह यात्रा के लिए निकल पड़ता है। जब कोई साहित्यिक मनोवृत्ति वाला व्यक्ति अपनी मुक्त अभिव्यक्ति को शब्दबद्ध करता है, उसे यात्रा-साहित्य अथवा यात्रा-वर्णन कहते हैं। 
  • हमारे देश में यात्री तो अनेकानेक हुए, किन्तु यात्रा-वर्णनों को शब्दबद्ध करने की ओर ध्यान आधुनिक काल में ही गया है। इसीलिए यात्रा-वर्णन आधुनिक गद्य-विधा है। अन्य गद्य-विधाओं की भांति यह विधा भी पाश्चात्य सम्पर्क का ही परिणाम है। इसमें लेखक उन्हीं क्षणों का वर्णन करता है, जिनको वह अनुभूत सत्य के रूप में ग्रहण करता है। वह अपने वर्णन में संवेदनशील होकर भी निरपेक्ष रहता है। अधिकतर यात्रा-वर्णन संस्मरणात्मक साहित्य ही होता है। हिन्दी में भारतेन्दु युग से इसका प्रारम्भ हुआ। युग और भावबोध के परिवर्तन के साथ यात्रा-दृष्टि में भी अन्तर आ जाता है।
रिपोर्ताज
  • ‘रिपोर्ताज’ शब्द मूलतः फ्रेंच भाषा का है। दूसरे महायुद्ध के दौरान इसका सर्वप्रथम प्रयोग हुआ। किसी घटना को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत कर देना ‘‘रिपोर्ट’’ कहलाता है, लेकिन उसी को साहित्यिक सरसता तथा कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करना ‘‘रिपोर्ताज’’ है। यह रोचक पत्रकारिता का अंग है। समाचार -पत्रों के लिए लिखी गई रिपोर्ट की तरह यह भी तथ्यपरक, तात्कालिक और वस्तुनिष्ठ 
  • साहित्य-विधा है। यह आशु कविता की भांति तुरंत, बिना किसी पूर्व तैयारी के, लिखा जाता है। इसमें कल्पना के लिए अधिक अवकाश नहीं रहता। लेखक कथ्य और तथ्य के प्रति सामूहिक प्रतिक्रिया को शब्दबद्ध कर देता है। 
  • रोचकता, उत्सुकता, साहित्यिकता और कलात्मकता उत्तम रिपोर्ताज के आवश्यक गुण हैं। हिन्दी में यह नवीन गद्य-विधा अभी विकासोन्मुख अवस्था में है। यह विकास आधुनिक युग में तीव्रता से हो रहा है। दूसरा महायुद्ध, आजाद हिन्द सेना का निर्माण, बंगाल का दुर्भिक्ष आदि के कारण हिन्दी में इस विधा का प्रादुर्भाव हुआ बताया जाता है।
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