पाषाण काल


'इतिहास' क्या है?  

अतीत यानी प्राचीन समय की घटनाओं की स्थिति की जानकारी देने वाला शास्त्र या विज्ञान को इतिहास कहते हैं।

इसे तीन भागों में बांटा गया है-

1. प्रागैतिहासिक काल

2. आद्य ऐतिहासिक काल

3. ऐतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक काल

  • प्रागैतिहासिक काल से तात्पर्य उस काल से है, जिसका कोई लिखित साक्ष्य नहीं प्राप्त होता है। इसके लिए पूर्णत: पुरातात्विक साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। 
  • इस काल के मानव को लिपि अथवा लेखन कला का ज्ञान नहीं था। 


आद्य ऐतिहासिक काल

  • इस काल के मानव को किसी न किसी प्रकार की लिपि का ज्ञान था, किन्तु यह लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है अर्थात् लिखित साक्ष्य उपलब्ध है किंतु अपठनीय है। काल गैरिक एवं कृष्ण लोहित मद्भाण्ड संस्कृति से संबंधित है। 
  • उदाहरण: हड़प्पा सभ्यता एवं वैदिक संस्कृति।

ऐतिहासिक काल

  • जिस काल का मानव किसी न किसी प्रकार की लिपि से परिचित ​था और वह लिपि पढ़ी जा चुकी है।
  • अर्थात् इस काल में मानव सभ्य बन गया था, इस काल की घटनाओं का लिखित विवरण उपलब्ध है एवं पढ़ा जा चुका है। 

प्रागैतिहासिक संस्कृतियां

पाषाण काल

  • भारत में पाषाणकालीन संस्कृति की जानकारी सर्वप्रथम 1863 ई. में प्राप्त हुई, जब भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान रॉबर्ट ब्रूसफुट ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया।
  • पूर्ण पाषाण काल के उपकरण प्राप्त करने वाले अन्य विद्वान — ​विलियम किंग, ब्राउन, काकबर्न, सी.एल. कार्लाइल आदि हैं।
  • 1935 ई. में डी. टेरा और पीटरसन द्वारा किया गया। इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैम्ब्रीज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था। 
  • इस युग का मानव अपेक्षाकृत असभ्य एवं बर्बर था। वह भूख मिटाने के लिए शिकार करता था और भोजन एकत्र करता था। बाद में अपने जीवन स्तर को सुधारने के लिए मानव ने पत्थर के औजारों का उपयोग किया, क्योंकि पत्थर उन्हें अपने आस-पास आसानी से मिल जाते थे। औजार सर्वप्रथम पाषाण काल के बने थे, इसलिए इस युग को पाषाण युग या प्रस्तर युग कहा गया है। 

पाषाण काल को तीन भागों में विभक्त किया गया है—

1. पूर्व पाषाण काल या पुरापाषाण काल

  • 5 लाख ईसा पूर्व से 9 हजार ईसा पूर्व तक, इस युग में मानव आखेटक और खाद्य संग्राहक था।
  • इस काल के उपकरणों, औजारों में भिन्नता के आधार पर इस काल को तीन भागों में विभक्त किया जाता है— 

क. निम्न पुरापाषाण काल 

  • 5 लाख ईसा पूर्व से 50 हजार ईसा पूर्व तक, हैंड एक्स संस्कृति

ख. मध्य पुरापाषाण काल

  • 50 हजार ईसा पूर्व से 40 हजार ईसा पूर्व तक
  • पत्थर की पपड़ियों से बने औजार

ग. ऊपरी पुरापाषाण काल

  • 40 हजार ईसा पूर्व से 9 हजार ईसा पूर्व तक
  • होमोसेपियंस का उदय का समय

2. मध्य पाषाण काल 

  • 9 हजार ईसा पूर्व से 4 हजार ईसा पूर्व तक, इस काल का मानव आखेटक एवं पशुपालक था।

3. नव पाषाण काल

  • 4 हजार ईसा पूर्व से 2500 ईसा पूर्व तक, इस समय का मानव खाद्य उत्पादक था।


पुरापाषाण युगीन संस्कृति

  • इस संस्कृति का उदय अभिनूतन (बर्फ युग का अंतिम चरण) युग में हुआ। 
  • इस काल के औजारों में बढ़ते का क्रम में उनकी सुदृढ़ता, कुशलता और सौन्दर्य पाया जाने लगा, साथ ही विविधता भी।

निम्न पुरापाषाण युगीन संस्कृति 

  • इस युग का मानव शिकार पर निर्भर था।
  • इस युग के उपकरण सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी (वर्तमान पाकिस्तान) से प्राप्त हुए हैं। इस कारण इसे सोहन संस्कृति भी कहा जाता है। 
  • इसके अंतर्गत चापर-चापिंग पेबुल औजार पाए गए हैं। 

पेबुल (उपल)

  • पत्थर के टुकड़े, जिनके किनारे पानी के बहाव में रगड़ खाकर चिकने व सपाट हो जाते हैं, इन्हें पेबुल (उपल) कहते हैं। इनका आकार-प्रकार गोल-मटोल होता है।

'चॉपर'

  • 'चॉपर' बड़े आकार वाला वह उपकरण है, जो पेबुल से बनाया जाता है। इसके ऊपर एक ओर फलक निकालकर धार बनाई गई है।

चापिंग उपकरण

  • चापिंग उपकरण द्विधार वाला होता है। इसमें पेबुल के ऊपर दोनों किनारों को छीलकर उनमें धार बनाई गई है।

हैण्ड ऐक्स

  • इस युग में हाथ की कुल्हाड़ियां भी बहुतायत से मिली हैं। इसके उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीप बदमदुरै तथा अत्तिरमपक्कम् से उपकरण खोज निकाले गए। इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि हैं। इस युग में उपकरण मानव ने अधिकांशतः स्फटिक (क्वार्ट्जाइट यानी कांचमणि) के बनाए। इस प्रकार औजार बनाने के लिए क्वार्ट्जाइट सबसे लोकप्रिय थी।

  • पुरापाषाण युग की बाद की प्रावस्थाओं में स्फटिक (क्वार्ट्जाइट) के स्थान पर गोमेद (अगेट), सूर्यकान्त (जैसपर) तथा केल्सीडोनी के उपकरण मिलते हैं।


नोट:

1. हाथ की कुल्हाड़ी (Hand Axe ) – 

  • इसकी मूठ चौड़ी और आगे का हिस्सा पतला होता है। इसका उपयोग काटने या खोदने के लिए होता है।

2. चीरने का औजार विदारणी-क्लीवर (Cleaver) - 

  • इसमें दुहरी धार होती है और इसका उपयोग काटने के लिए किया जाता होगा।

3. काटने के औजार खंडक-चॉपर (Chopper) -

  • एक बड़ा स्थूल औजार जिसमें एक तरफा धार होती है और इसका उपयोग काटने के लिए किया जाता होगा।

4. काटने का औजार चापिंग टूल्स (Chopping tools) -

  • यह भी चॉपर के समान एक बड़ा स्थूल औजार है पर इसमें दुहरी धार होती है और इसमें पटूटे होते हैं। इसका उपयोग भी किसी चीज को काटने के लिए होता था। इसकी चॉपर से अधिक नुकीली धार थी।

5. पत्तर, चिप्पड़ (शल्क)-फ्लैक (Flake) -

  • यह एक प्रकार का औजार होता है, जिसे पत्थर को तोड़कर बनाया जाता है। पत्तर का उपयोग उभरे भागों को गहरे भागों के बराबर लाने में किया जाता होगा।

6. खुरचनी-साइड स्क्रेपर (Side Scrapper) – 

  • इसमें एक पत्तर या ब्लैड होती है और इसका किनारा धारदार होता है। इसका उपयोग पेड़ की खाल या जानवरों का चमड़ा उतारने में किया जाता होगा।

7. तक्षणी-ब्यूरीन (Burin)—

  • यह भी पत्तर या ब्लैड के समान ही होता है, पर इसका किनारा दो तलों के मिलने से बनता है। इसका उपयोग मुलायम पत्थरों, हड्डियों या गुफाओं की दीवारों पर नक्काशी के लिए होता होगा।  


सोहन संस्कृति/उद्योग

  • सोहन, सिन्धु नदी की एक छोटी सहायक नदी है। 
  • 1928 ई. में डी.एन. वाडिया ने इस क्षेत्र में पूर्व पाषाणकाल का उपकरण प्राप्त किया। 
  • सोहन नदी घाटी की पांच वेदिकाओं से भिन्न-भिन्न प्रकार के पाषाण के उपकरण प्राप्त किए गए हैं। इन्हें सोहन उद्योग के अंतर्गत रखा जाता है। 
  • सोहन घाटी के उपकरणों को आरम्भिक सोहन, उत्तरकालीन सोहन, चौन्तरा तथा विकसित सोहन नाम दिया गया है। 
  • सोहन नदी घाटी के अतिरिक्त इस युग के औजार मध्य भारत में नर्मदा नदी के किनारे, आंध्र प्रदेश में कुरनूल जिले में, दक्षिण बिहार के सिंहभूमि में, गुजरात की साबरमती घाटी में, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के बेलन घाटी में, महाराष्ट्र में नेवासा में और कई अन्य स्थानों पर पाए गए हैं।
  • सरस्वती, चम्बल, बेड़च, बनास, गम्भीरी, आहड़ और लूनी नदियों और अरावली पर्वत श्रेणियों के किनारों और गड्ढों में जमी हुई परतें तथा उनके आस-पास के क्षेत्रों में मिलने वाले पत्थर के औजार इस बात को प्रमाणित करते हैं कि राजस्थान मानव उद्गम वाले विश्व के प्राचीन भू-भागों में एक अति प्राचीन भू-भाग है।
  • सोहन संस्कृति के उपकरण भारत के अन्य भागों से भी प्राप्त हुए हैं। प्रारम्भिक सोहन प्रकार के पेबुल उपकरण चित्तौड़ (राजस्थान), सिंगरौली तथा बेलन नदी घाटी (क्रमशः उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर एवं इलाहाबाद जिलों में स्थित), मयूरगंज (उड़ीसा), साबरमती तथा माही नदी घाटियों (गुजरात) और गिछलूर एवं नेल्लूर (आंध्र प्रदेश) से प्राप्त किए गए हैं।
  • बेलन घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पूर्वपाषाणकाल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें सभी प्रकार के हैण्ड ऐक्स, क्लीपर, स्क्रैपर, पेबुल पर बने हुए चॉपर उपकरण आदि सम्मिलित हैं। हैण्ड ऐक्स 9 से.मी. से लेकर 38.5 से.मी. तक के हैं। बेलनघाटी के मध्य तथा उच्च पूर्वपाषाणकाल के उपकरण भी मिले हैं।


मद्रास उद्योग/ मद्रासीय संस्कृति

  • दक्षिण भारत से प्राप्त उपकरणों को हैण्ड-ऐक्स संस्कृति का नाम दिया गया है।
  • सर्वप्रथम 1863 ई. में रॉबर्ट ब्रूसफुट ने मद्रास के पास पल्लवरम् नामक स्थान से पहला हैण्डएक्स प्राप्त किया था। 
  • हैण्ड ऐक्स अर्थात् हस्त कुल्हाड़ियां उत्तर भारत से भी पर्याप्त मात्रा में मिली हैं। इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रैपर आदि हैं। इस प्रकार हैण्ड ऐक्स को क्लीवरों के साथ या उनके बिना ही 'मद्रास उद्योग' कहा गया है।
  • दक्षिणी भारत की कोर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक उपकरणों के लिए महत्वपूर्ण है। इस घाटी में स्थित वदमदुरै नामक स्थान से निम्न र्पू पाषाणकाल के बहुत से उपकरण मिले हैं जिनका निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है। 
  • वदमदुरै के पास कोर्तलयार नदी की तीन वेदिकाएं मिली है। 
  • कोर्तलयार घाटी का दूसरा महत्वपूर्ण पूर्व पाषाणिक स्थल अत्तिरमपक्कम् है। 
  • यहां से भी बड़ी संख्या में हैण्डएक्स, क्लीवर तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं जो पूर्व पाषाणकाल से संबंधित है। 
  • यहां के हैण्डएक्स अश्यूलियन प्रकार के हैं।
  • मद्रासीय परम्परा के उपकरण अन्य स्थानों से मिले हैं— नर्मदा घाटी, मध्यप्रदेश की सोन घाटी, महाराष्ट्र की गोदावरी तथा उसकी सहायक प्रवरा घाटी, कर्नाटक की कृष्णा—तुंगभद्रा घाटी, गुजरात की साबरमती तथा माही घाटी, राजस्थान की चम्बल घाटी, उत्तर प्रदेश की सिंगरौली बेसिन, बेलनघाटी आदि से ये उपकरण मिलते हैं। 

मध्य पुरापाषाण संस्कृति-

  • निम्न पुरापाषाणकालीन संस्कृति के पश्चात् अधिक विकसित संस्कृति मध्य पुरापाषाण संस्कृति है। इस युग में उद्योग मुख्यत: पत्थर की परतों या पपड़ी से बनी वस्तुओं का था।
  • इस युग के मुख्य औजार हैं— पपड़ियों के बने विविध प्रकार के फलक, सुतारी, वेधनी, छेदनी और खुरचनी। इस युग हाथ के औजार पहले से छोटे थे। इस युग में सरल बटिकाश्म उद्योग (पत्थर के गोलों से वस्तुओं का निर्माण) देखने को मिलते हैं। 
  • फलकों की अधिकता के कारण मध्य पूर्वपाषाण काल को 'फलक संस्कृति' की संज्ञा दी गई है। इस युग में उपकरणों का निर्माण क्वार्ट्जाइट पत्थर से किया गया है। इसमें चर्ट, जैस्पर, फ्लिन्ट जैसे मूल्यवान पत्थरों को काम में लिया गया है।
  • मध्य पुरापाषाण स्थल जिस क्षेत्र में मिलते हैं, मोटे तौर पर उसी क्षेत्र में प्रारम्भिक पुरापाषाण स्थल भी पाए जाते हैं।
  • मध्य पुरापाषाण युग के औजार सोहन नदी की घाटी में, नर्मदा और तुंगभद्रा नदी के किनारे कई स्थलों पर तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक के कुछ स्थानों में पाए गए हैं।
  • महाराष्ट्र में नेवासा, बिहार में सिंहभूमि तथा पलाभू जिले, उत्तर प्रदेश में चकिया (वाराणसी), मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका गुफाओं तथा सोन घाटी, राजस्थान में बागोर, बेड़च, कादमली घाटियों, गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र, हिमाचल में व्यास बाणगंगा तथा सिरसा घाटियों आदि विविध पुरास्थलों से ये उपकरण उपलब्ध हुए हैं। उस युग में आर्द्रता अधिक होने के फलस्वरूप मानव की बड़े पशुओं की अपेक्षा छोटे पशुओं पर निर्भरता बढ़ने लगी थी।

उत्तर पुरापाषाण संस्कृति-

  • इस समय मौसम पहले से कम नम और गर्म हो गया था। इस समय का प्रधान पाषाण उपकरण ब्लेड है। ब्लेड पतले और संकरे आकार वाला वह पाषाण फलक है, जिसके दोनों किनारे समानान्तर होते हैं और जो लम्बाई में अपनी चौड़ाई से दुगुना होता है।
  • भारत में ब्लेड प्रधान उच्च पूर्वपाषाण काल का अस्तित्व था इस युग के उपकरणों में फलक और तक्षणियों (ब्लेड्स और ब्यूरिन्स) का इस्तेमाल पाया गया है। 
  • ब्लेड उपकरण एक विशेष प्रकार के बेलनाकार कोरों से निकाले जाते थे। इनके निर्माण में चर्ट, जैस्पर, फ्लिन्ट आदि बहुमूल्य पत्थरों का उपयोग किया गया है।
  • विश्व के सन्दर्भ में उच्च पुरापाषाण काल का दो कारणों से विशेष महत्त्व है।
  • पहला कई अवस्थाओं से होकर आधुनिक मानव या होमोसेपियन का विकास सम्भव हुआ और दूसरा इस युग में उपयोग में लाए जाने वाले औजार चकमक के बने थे।
  • भारत में जिन स्थलों से उच्च पूर्वपाषाणकाल के उपकरण मिले हैं, उनमें बेलन तथा सोन घाटी (उ.प्र.); सिंहभूमि (बिहार); जोगदहा, भीमबेटका, बबुरी, रामपुर, बाघोर (म.प्र.), पटणे, भटणे, नन्दी पाल्लै एवं इनामगांव (महाराष्ट्र); रेणिगुन्ता, वेमुला, कर्नूल गुफाएं (आंध्र प्रदेश); शोरापुर, दोआब (कर्नाटक); विसदी (गुजरात) तथा बूढ़ा पुष्कर (राजस्थान) का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है।
  • इस संस्कृति में पाषाण उपकरणों के साथ अस्थि उपकरण, मूर्ति, पशु जीवाश्मों की प्राप्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। 
  • रॉबर्ट ब्रूसफुट को उन्नीसवीं शताब्दी में ही विलासरगम गुफाओं (आंध्र प्रदेश) के उत्खनन से 200 अस्थि उपकरण प्राप्त हुए थे, जिनमें स्क्रैपर, नाइफ स्क्रैपर, डैगर, हैण्ड ऐक्स आदि प्रमुख हैं।
  • इस काल में मानव की कला की ओर रुझान के स्पष्ट उदाहरण मिलना प्रारम्भ हो जाता है।
  • इलाहाबाद के बेलन घाटी में स्थित लोंहदा नाले से प्राप्त अस्थि निर्मित मातृदेवी की मूर्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  • पटणे से भी शुतुरमुर्ग के अण्डे पर एक-दूसरे को आपस में काटती हुई चित्रित रेखाएं प्राप्त हुई हैं।
  • भीमबेटका से प्राप्त कुछ चित्रों को डॉ. वी.एस. वाकणकर ने इसी काल का माना है।

नोट:

  • भीमबेटका भोपाल के समीप स्थित पुरा पाषाण कालीन स्थल है। यहां से अनेक चित्रित गुफाएं, शैलाश्रय (चट्टानों से बने शरण स्थल) तथा अनेक प्रागैतिहासिक कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं।

मध्यपाषाण संस्कृति

  • भारत में मध्य पाषाणकालीन संस्कृति की खोज सर्वप्रथम सी. एल. कार्लाइल द्वारा 1868 ई. में विन्ध्यक्षेत्र से लघु पाषाणोपकरण खोज निकाले।
  • इस काल का मानव अपेक्षाकृत बड़े भूभाग में निवास करता था।
  • मध्य पाषाणकाल के उपकरण आकार में अत्यंत छोटे हैं।  
  • मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) और टीबा (मध्य प्रदेश) में उत्खनन के फलस्वरूप उद्घाटित हुई।
  • ऐसा माना जाता है कि इस समय वातावरण में हुए परिवर्तनों के चलते जलवायु गर्म एवं शुष्क हो गई थी। अतः मनुष्य के लिए नवीन परिस्थितियों के साथ सर्वथा नवीन अनुकूलन आवश्यक हो गया था। जलवायु परिवर्तन की शृंखला के साथ जो सबसे मौलिक परिवर्तन आया, वह था औजार तकनीक के विकास का प्रयास। इसका परिणाम हुआ-तीर-कमान का विकास।
  • तीर की नोंक बनाने के लिए जो प्रस्तर उपकरण बनाए गए, वे मध्यपाषाणयुग के विशिष्ट औजार हैं, जिन्हें सूक्ष्म पाषाण (माइक्रो लिथस्) औजार कहा गया है।
  • मध्यपाषाण युग के उपकरणों में एकधार फलक वेधन (प्वाइंट), अर्धचन्द्राकार (ल्यूनेट) तथा समलम्ब (ट्रेपेज) प्रमुख हैं।
  • परवर्ती सूक्ष्मपाषाण उपकरणों के साथ काठी, चक्की और ठीकरों का मिलना यह संकेत करता है कि मध्यपाषाणकाल, पुरापाषाण तथा नवपाषाण के मध्य संक्रमण की अवस्था है।
  • इस संस्कृति में बहुधा तीन प्रकार के उपकरण समूह प्राप्त होते हैं—
  • (i) अज्यामितीय उपकरण, (ii) ज्यामितीय उपकरण, (iii) मृद्भाण्ड सहित ज्यामितीय उपकरण।
  • इन तीनों समूहों में से अज्यामितीय उपकरण प्रायः मध्यपाषाणकालीन स्तरीकरण में इस संस्कृति के प्रथम चरण को प्रदर्शित करते हैं, जबकि ज्यामितीय एवं मृद्भाण्ड सहित ज्यामितीय क्रमशः द्वितीय एवं तृतीय चरण को ऐसे उदाहरण मुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात एवं गंगाघाटी के पुरास्थलों से प्राप्त होते हैं।
  • मृद्भाण्ड सहित ज्यामितीय उपकरण वाले स्थलों को इस संस्कृति का विकसित रूप माना जाता है। ऐसे स्थल बागोर (राजस्थान), आदमगढ़ (मध्य प्रदेश), पटणे (महाराष्ट्र) आदि से बड़ी संख्या में मिले हैं।

नवपाषाण संस्कृति

  • इस युग में प्रगतिशील तत्वों से परिचय मिलता है। नवपाषाणकाल मानवीय विकास के इतिहास का वह क्रांतिकारी चरण है, जहाँ पर मानव ने सभ्यता के द्वार पर दस्तक दी और उत्तरोत्तर वह आगे ही बढ़ता गया। वनस्पति कृषिकरण और पशुओं के नवपाषाण चरण का एक मुख्य विशिष्ट लक्षण माना गया है।
  • नियोलिथिक (नवपाषाण) पालना संस्कृति शब्द का प्रयोग पहले सर जॉन लुबॉक ने अपनी पुस्तक प्रिहिस्टोरिक टाइम्स (1865), में किया था। उसने इस शब्द का प्रयोग उस युग को बताने के लिए किया था, जिस युग में पत्थर के उपकरण अधिक कुशलता से और अधिक रूपों में बनाए गए और उन पर पॉलिश भी की गई।
  • इस काल में मानव घुमक्कड़ जीवन छोड़कर पूर्ण रूप से ऐसे स्थलों पर निवास करने लगा था, जहां पर नवीन प्रकार के उपकरण निर्माण के लिए पत्थरों की प्राप्ति हो सके एवं खेती के लिए उपजाऊ मिट्टीयुक्त भूमि। इन्हीं क्षेत्रों में सुरक्षा में रखकर मानव झोंपड़ियों या गर्तों में रहकर खेती व पशुपालन करने लगा था। इन सभी नवीन प्रतिक्रियाओं का आरम्भ इस काल में प्रथम बार दृष्टिगत होता है।
  • मानव की इस प्रगति को गार्डन चाइल्ड ने नवपाषाणीय क्रान्ति की संज्ञा दी है। “खाद्य उत्पादन मुख्य रूप से विचारपूर्वक अनाज की खेती, पशुओं का चुनाव एवं पशुपालन आर्थिक क्रान्ति थी, जो कि अग्नि के आविष्कार के उपरान्त मानव इतिहास में महान् थी। प्रारम्भिक अवस्था में वनस्पति की कमी के कारण खाद्य उत्पादन प्रारम्भ हुआ। नदियों के किनारे मानव विकास व झरनों की कमी के परिणामस्वरूप पौष्टिक आहार की खोज हुई। जंगलों में कमी, मानव व पशु साथ-साथ निवास करने के परिणामस्वरूप ही सम्भवत: पशुपालन का प्रारम्भ हुआ।"
  • के साथ दफनाए जाते थे। पालतू कुत्तों को उनके मालिकों की कब्रों में दफनाने की प्रथा भारत के अन्य किसी भाग में नवपाषाणयुगीन लोगों में शायद नहीं थी। एक अन्य नवपाषाण स्थल है-गुफकराल यहाँ के निवासी कृषि और पशुपालन दोनों धंधे करते थे।
  • दक्षिणी- दक्षिण भारत से नवपाषाण संस्कृति के उत्तम प्रमाण प्राप्त हुए हैं। इस समूह की कुल्हाड़ियों की बगले अण्डाकार होती थीं और हत्या नुकीला रहता था। दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। ये लोग आमतौर से नदी के किनारे ग्रेनाइट की पहाड़ियों के ऊपर या पठारों में बसते थे। पकी मिट्टी की मूर्तिकाओं (फिगरिन्स) से प्रकट होता है कि वे बहुत से जानवर पालते थे। उनके पास गाय-बैल, भेड़-बकरी होती थीं। वे सिलबट्टे का प्रयोग करते थे, जिससे प्रकट होता है। कि वे अनाज पैदा करना जानते थे।
  • हमें गेहूं और जौ की खेती की शुरुआत के सबसे पहले साक्ष्य अफगानिस्तान और पाकिस्तान से मिले हैं। नवपाषाण काल की प्राचीनतम भारतीय बस्ती मेहरगढ़ है। यहाँ के लोग गेहूँ एवं जी उपजाते थे और कपास का प्रयोग करते थे और मिट्टी के मकानों एवं कच्ची ईंटों के मकानों में रहते थे। भारत में चावल उत्पादन का प्राचीनतम साक्ष्य इलाहाबाद के नवपाषाण स्थल कोल डिहवा से प्राप्त होता है, जो सम्भवतः 7000-6000 ई. पूर्व के हैं। भारत के प्रमुख नवपाषाण स्थल कश्मीर में बुर्जहोम से लेकर दक्षिण में आंध्र प्रदेश स्थित पोयमपल्ली तक तथा बलूचिस्तान में मेहरगढ़ तथा किली गुल मुहम्मद से असम में मरकडोला तक नवपाषाणयुगीन विभिन्न स्थल खोजे जा चुके हैं। इस युग के मृद्भाण्ड चाक पर बने हुए हैं तथा बर्तनों पर पॉलिश है। इस मृद्भाण्डों में काला मृद्भाण्ड, धूसर मृद्भाण्ड हैं तथा चटाई की छाप वाले मृद्भाण्ड प्रमुख हैं। दक्षिण भारत में नवपाषाणयुगीन सभ्यता की सम्भावित तिथि ई.पू. 2500 से ई.पू. 1000 तक लगभग निर्धारित की गई है। यह भी स्मरण रहे कि भारतीय उपमहाद्वीप में अस्थि उपकरणों की परम्परा सम्पूर्ण प्रस्तर युग में सीमित मात्रा में प्रचलित प्रतीत होती है, जबकि इसी समय यूरोप में अधिक अनुपात में। सम्भवत: इसके लिए भौगोलिक तत्त्व जिम्मेदार हैं। यहाँ की पारिस्थितिकी में हड्डियाँ क्षरणशील माध्यम थी जबकि शीत प्रदेशों में वे अधिक स्थायी थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में नवपाषाणकाल कुछ विलम्ब से शुरू हुआ। ऐसा अनुमान है कि पहले पश्चिम एशिया में उल्लेखनीय तकनीकी प्रगति हुई और फिर भारत में परन्तु भारत ने शायद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। भारत में मानव ने सभ्यता पर कब पैर रखे, इसको लेकर विवाद है और हो सकता है किन्तु जब भी रखे, मजबूती से और शान से। नवप्रस्तरकालीन संस्कृतियाँ
  • उत्तर भारत–बुर्जहोम, गुफकराल, बेगागुण्ड, हरिपरिगोम, ओलचिबाग, पामपुर, पानजगोम, सोमबुर, बड़ाताल।


Post a Comment

0 Comments