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दंड के सिद्धांत

byDivanshuGS -January 24, 2021
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दंड का सिध्दान्त




Theories of Punishment

  • दंड का सिध्दान्त सामाजिक-नैतिक अवधारणा है ।
  • दंड सामाजिक-नियंत्रण का साधन है।
  • मनुष्य के संकल्प - स्वातंत्र्य तथा नैतिक उत्तर—दायित्व के साथ दंड का घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
  • किसी व्यक्ति को केवल उसी अनुचित कर्म के लिये दण्ड देना नैतिक दृष्टि से न्यायसंगत माना जा सकता है जिसे उसने स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार किया है और जिसके स्थान पर यदि वह चाहता तो कोई अन्य कर्म कर सकता था अथवा जिसे न करने के लिये भी वह स्वतंत्र था।
  • किसी पागल अथवा मानसिक रोगी को दण्ड का अधिकारी नही माना जाता, क्योंकि वह कर्म करने या न करने के लिए स्वतंत्र नहीं होता ।
  • नैतिकता के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति को उसके शुभ कर्मों के लिए पुरस्कार और अशुभ
  • कर्मों के लिए दंड दिया जाए।
  • पुरस्कार प्राप्त करने के लिए और दंड से बचने के लिए कोई व्यक्ति नैतिक नियमों का पालन करता है।
  • बेंथम और मिल ने दंड और पुरस्कार को नैतिक प्रेरणा कहा है। दंड को नैतिकता की बाह्य निषेधात्मक स्वीकृति भी कहा गया है। 
  • कॉनसाइज डिक्शनरी — दंड का अर्थ है, दर्द, जुर्माना, ईश्वर या न्यायानुसार दण्ड, शारीरिक पीड़ा अथवा डांट—फटकार देना।"

 

बेस्टरमार्क 

  • दण्ड वह यातना या कष्ट है जो अपराधी को उस समाज के नाम पर, जि​सका कि वह स्थायी या अस्थायी सदस्य है, एक निश्चित रूप में दिया जाता है।

 

सेथना -

 

  • ''दण्ड एक प्रकार की सामाजिक निन्दा है और आवश्यक रूप से उसमें शारीरिक पीड़ा का होना जरूरी नहीं हैं''

 

टॉफ्ट

 

  • "हम दण्ड की परिभाषा उस जागरूक दबाव के रूप में कर सकते हैं जो समाज की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति को अवांछनीय अनुभवों वाला कष्ट देता है, यह कष्ट हमेशा ही उस व्यक्ति के हित में नहीं होता है।"

दण्ड के उद्देश्य:

  • समाज में व्यवस्था बनाए रखना
  • अपराधी को सुधारना
  • अपराध का निवारण करना
  • आहत व्यक्ति को संतोष प्रदान करना
  • समाज में न्याय के सिद्धांत को लागू करना
  • लोगों में यह भावना पैदा करना कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा व बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।
  • दण्ड राज्य की आय का एक साधन भी है
  • समाज में सामाजिक सुरक्षा की भावना को विकसित करके शांति की स्थापना करना।

 

असिस्टेंट प्रोफेसर का हल प्रश्न Solved Paper

सिद्धांत

मैक्कनल ने 5 भागों में बांटा है—

1. प्रायाश्चित

2. प्रतिशोधात्मक

3. प्रतिरोधात्मक

4. निरोधात्मक

5. सुधारात्मक

 

किर्चवे ने 4 भागों में विभाजित किया है—

1. क्षतिपूर्ति

2. प्रायश्चित का सिद्धांत

3. प्रतिशोधात्मक

4. प्रतिरोधात्मक

 

टॉमस हिलग्रीन ने 3 भागों में विभाजित किया है—

1. प्रतिकारात्मक

2. प्रतिशोधात्मक

3. सुधारात्मक

 

1. प्रतिकारात्मक सिद्धांत

  • प्रतिकार का अर्थ होता है— बदला लेना।
  • इसमें दण्ड को निषेधात्मक पुरस्कार कहा गया है।
  • इसके तहत अपराध के बदले दंड मिलना आवश्यक है।
  • इसके अनुसार दंड एक न्यायोचित व्यापार (कार्य) है।
  • दंड का लक्ष्य नैतिक नियम की उच्चता तथा प्रभुता की रक्षा और दोषी को दंडित करना है।
  • मैकेंजी— ''न्यायालय केवल मुनष्य को उसी का प्रतिदान करता है, जो वह अर्जित कर चुका है। वह अशुभ कर चुका है और युक्तियुक्त है कि उसके पाप का पारिश्रमिक अर्थात अशुभ उसे वापस मिलना चाहिए।''
  • अरस्तु दंड को ऋणात्मक पुरस्कार मानते हैं। जो जान—बूझकर नैतिक नियमों की अवहेलना करें, उसे अवश्य दंड मिलना चाहिए।
  • नैतिक नियम सर्वोच्च प्रभुसत्ता है।
  • मैकेंजी — यह उसका अधिकार है, उसे मिलना चाहिए समाज जो उसे दंड देता है, उसके अधिकार से उसे वंचित नहीं करता बल्कि जो उसे मिलना चाहिए जो वह कमा चुका है। वही उसे देता है।

 

कांट और हीगेल

  • अपराधी को अवश्य दंड मिलना चाहिए क्योंकि यह उसका ऋणात्मक (निषेधात्मक) पुरस्कार है।

 

ब्रैडले

  • हम दंड इसलिए भोगते हैं कि हम उसके योग्य है, किसी दूसरे कारण से नहीं। यदि किसी अशुभ कर्म के फल होने के अतिरिक्त अन्य कारण से दंड दिया जाता है, तो वह एक विशुद्ध अनीति है। एक स्पष्ट अन्याय है दंड दंड हेतु दिया जाता है। 

स्टीफेन

  • जैसे विवाह के लिए प्रेम जरूरी है उसी प्रकार से कानून के लिए दण्ड भी।

 

प्रतिकारवाद के दो रूप है —

 

क. कठोरवाद और

ख. मृदुल मत

 

कठोरवाद

 

  • इस मत के अनुसार जिस मात्रा में अपराध किया जाए, उसी मात्रा में अपराधी को दंड देना चाहिए।
  • 'खून की सजा खून','आंख के लिए आंख' और 'जैसे को तैसा' इस सिद्धांत के प्रतीक हैं।
  • यहां परिस्थितियों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
  • वर्तमान में मध्य एशिया के मुस्लि देशों में इस प्रकार की न्याय व्यवस्थां

  

मृदुल मत

 

  • इस मत के अनुसार अपराधी को सजा सुनाने के ​पहले उसकी उम्र, उत्तेजना, परिस्थिति आदि पर विचार कर लेना आवश्यक है।
  • यदि कोई अपराधी किसी बाह्य परिस्थिति से बाध्य होकर अपराध कर बैठता है, तो उसकी सजा उसी मात्रा में हल्की होनी चाहिए।

 

प्रतिकारावाद की आलोचना

  • इस सिद्धांत का कठोरवाद दोषपूर्ण है।
  • कठोरवाद के अनुसार अपराधी को सजा देते समय बाह्य एवं आंतरिक परिस्थितियों का ख्याल नहीं किया जाता।
  • ऐसा भी होता है कि व्यक्ति परिस्थिति के वशीभूत कोई अपराध कर बैठता है। ऐसी स्थिति में उसमें स्वतंत्र संकल्प का सर्वथा अभाव रहता है।
  • संकल्प—स्वातंत्र्य के अभाव में किसी व्यक्ति को उसके अशुभ कर्मों के लिए दंड़ित करना उचित जान नहीं पड़ता। इस प्रकार, प्रतिकारवाद परिस्थितियों का विचार किये बिना ही अपराधी को दण्ड देने की बात कहकर ठीक नहीं करता। अपराधी को किसी साध्य का साधन मानना ठीक नहीं है।

 

डिवी — हम केवल इस बात से अपने दण्ड विधान के परिणामों की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते कि अभियुक्त अपराधी है।

 

विलियम लिली

'नीतिज्ञों के लिए यह बहुत जटिल प्रश्न है जब उससे यह पूछा जाता है कि अपराधी को क्या दण्ड देना, उचित है और यदि हां, तो किन अंशों में दण्ड न्यायसंगत है।'

निवर्तनवादी सिद्धांत

  • इसे प्रतिरोधात्मक/वर्जनात्मक सिद्धांत भी कहते हैं।
  • निवर्तन का अर्थ— रोकना
  • इस सिद्धांत के अनुसार किसी अपराधी को सजा देने का यह लक्ष्य रहता है कि उस अपराध की पुनरावृत्ति उस अपराधी या अन्य व्यक्ति द्वारा न हो।
  • न्यायाधीश — तुम्हें भेड़ चुराने के लिए दंड़ित नहीं किया जाता, बल्कि इसलिए कि भेड़ की चोरी न हो।

 

आलोचना

 

  • निवर्तनवादी सिद्धांत दोषपूर्ण है। यहां अपराध की संभावना नष्ट करने के लिए किसी अपराधी को दंड दिया जाता है।
  • अपराधवृति रोकने के लिए किसी मनुष्य को साधन बनाना सर्वथा अनुचित है।
  • मनुष्य को सदैव एक साध्य एंड समझा जाना चाहिए न कि साधन, मनुष्य को साध्न बनाना मनुष्य मात्र के प्रति अन्याय करना है।
  • दूसरों को अपराध करने से रोकने के लिए किसी व्यक्ति को दंड देना भी उचित नहीं कहा जा सकता।
  • मैकेंजी— एक व्यक्ति को केवल दूसरे के लिए तकलीफ देना शायद ही उचित समझा जाए।

  • इसमें मनुष्य को वस्तु मान लेना होगा, एक साधन भर, अपने—आप में साध्य नहीं।

लिली

  • निर्वतनवाद की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यदि दंड का लक्ष्य केवल व्यक्ति को कुकर्मों से अलग रखना है तो यह महत्वहीन है कि दंड़ित व्यक्ति अपने—आप में बेकसूर या कसूरवार है।
  • मनुष्य वैसा आलू नहीं है, जिसमें थोड़ा—सा दाग लगने पर आलुओं के सड़ने के भय से उसे निकाल फेंका जाए।

Tags: Sociology
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