Type Here to Get Search Results !

मैं ही था दोषी

स्व दोष

मैं ही था दोषी,
पुराकाल से अद्यतक,
आमजन हूं राष्ट्र का,
हरदेश काल में।
मैंने ही चुना उसे, 
कभी राजतंत्र में,
अब लोकतंत्र में।
मिथ्यक है यह भम्र,
कि कोई हितैषी जन का है।
सोचता हूं कि हर युग में,
शोषण आमजन का,

निःसंदेह शासित ही करता है।
        राजपूत हूं उच्च कुल का नहीं,
        अभाव देखें जन्म से ही
        तभी सच कहता हूं 
         मर्यादा में तो,
अभिजात वर्ग का ही हूं।
आज चिंतन कर,
आमजन की व्यथा सुन और देख, 
लेखनीबद्ध करता हूं।
बरबस ही स्वयं से कहता हूं,
क्या दोषी था राजतंत्र ?
वर्तमान का लोकतंत्र,
फिर वही मिथ्यक बनने चला।
दृष्टिपात करता जैसे दूरदृष्टा,
कभी मंथन इतिहास का,
तो कभी साहित्य का,
तुलना में भौतिकता का,
कोई भी अड़िग नहीं।
उस प्रकृति रचना से ज्यादा,
कर्महीन तो नर ही होगा,
हर ओर भ्रष्टाचार होगा,
कर्मक्षेत्र में अपूर्व साहस से,
विजय श्री उसकी होगी,
जो शासित संग होगा।
दो महत्वाकांक्षी की परिकल्पना में,
श्रेष्ठता की मिथ्यक अभिलाषा में,
  हरदेश काल में,
  उपेक्षित आमजन को कर,
लडे़ गये कितने विश्व युद्ध।
लड़ी जाती है जंग इस वास्ते,
महत्वाकांक्षी हूं आमजन का,
चहेता जन मेरा समर्थक,
आज श्रेष्ठता की कुर्सी पर,
मैं शासक पुराकाल से अद्यतक,
वही रचना दोहराता हूं।
जैसा आम जन चाहता है,
वैसा शासन चलाता हूं।
जनक्रांति हुई थी,
पुरावशेष पर बना लोकतंत्र,
राजतंत्र को ताबूत में बंद कर,
सीधे पैरों खड़ा किया था।
पर क्या बदला,
शक्ति के बल की जगह,
प्रतिनिधि चुनने का हक मात्र पा,
वह इठला रहा व्यर्थ ही,
प्रतिनिधि है उसका जरूर हक़ के वास्ते,
उसका प्रतिनिधित्व करेगा,
पर हर बार ठगा वह जाता है,
पांच वर्ष शासन के बाद फिर,
झूठे वादों के साथ जनप्रतिनिधि आता है
एक मौका ओर दो मांगता

Rakesh Singh Rajput

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Below Ad