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आंग्ल-मैसूर युद्ध

byDivanshuGS -November 15, 2017
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आंग्ल-मैसूर युद्ध 


  • मैसूर में वडियार वंश का शासन था, चिक्का कृष्णराज शासक था।
  • दो भाइयों, देवराज ‘मुख्य सेनापति’ तथा नंदराज (नंजाराज ‘राजस्व तथा वित्त के अधीक्षक’) ने राज्य की समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली।
  • हैदरअली का जन्म 1721 में मैसूर प्रांत के कोलार में।
  • पिता फतेह मुहम्मद उच्च कोटि के सेनानायक थे।
  • 1749 ई. में हैदरअली ने अपना सैनिक जीवन नंदराज के संरक्षण में शुरू किया।
  • डिंडिगुल में हैदरअली ने फ्रांसीसियों के सहयोग से 1755 ई. में एक शस्त्रागार स्थापित किया तथा अपनी सेना को प्रशिक्षण दिलवाया।
  • धीरे-धीरे हैदरअली की शक्ति बढ़ती गई और वह मैसूर का सेनापति हो गया। 
  • 1761 में उसने राज्य की समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली।



प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1767-69 ई.

युद्ध के कारण - 

1. अंग्रेज और हैदरअली दोनों ही अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि के लिए प्रयासरत थे, हैदरअली की बढ़ती हुई शक्ति अंग्रेजों के लिए खतरे का संकेत थी।
2. हैदरअली के विरूद्ध अंग्रेजों ने षड्यंत्र रचे थे, अतः वह उनसे खिन्न था।
3. हैदरअली अंग्रेजों के कट्टर शत्रु फ्रांसीसियों की ओर अधिक आकर्षित था।

अंग्रेजों का सामना करने के लिए हैदरअली ने मराठों तथा निजाम के साथ एक संधि कर, सैनिक मोर्चा बनाया।
सितंबर 1767 में जनरल स्मिथ के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना हैदरअली तथा निजाम की संयुक्त सेना को चंगामा घाट और त्रिचनापल्ली के युद्ध में परास्त किया। 
इस पराजय के बाद निजाम, हैदरअली का साथ छोड़कर अंग्रेजों से जा मिला। हैदर अली पुनः अकेला पड़ गया।
4 अप्रैल, 1769 ईत्र में हैदरअली तथा अंग्रेजों के बीच मद्रास की संधि हुई, जिसके अंतर्गत दोनों पक्षों में एक-दूसरे के जीते हुए क्षेत्र वापस कर दिये। इस संधि के साथ प्रथम युद्ध समाप्त हो गया।
अंग्रेजों ने युद्ध हर्जाने के रूप में हैदरअली को बहुत-सा धन दिया।
दोनों पक्षों ने भविष्य में एक-दूसरे को सहायता देने के वचन दिया।


द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1780-84



  • 1778 ई. में छिड़े अमेरिकी स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान इंग्लैण्ड व फ्रांस भी परस्पर युद्धरत हो गए। 
  • अंग्रेजों ने पाण्डिचेरी व मछलीपट्टम विजय करने के बाद 19 मार्च, 1779 ई. को हैदरअली की उपेक्षा करते हुए अंग्रेजों ने एक छोटी सी फ्रांसीसी बस्ती माही पर अधिकार कर लिया, जो दूसरे युद्ध का मुख्य कारण बना।
  • जुलाई 1780 में हैदरअली ने कर्नाटक पर आक्रमण किया तथा 10 सितंबर, 1780 को अरनी के स्थाान पर हेक्टर मुनरो के अधीन अंग्रेजी सेना को बुरी तरह परास्त कर अरकाट पर कब्जा कर लिया।
  • वारेन हेस्टिंग्स ने हैदर अली का सामना करने के लिए हेक्टर मुनरो के स्थान पर वांडीवाश के विजेता सर आयरकूट को भेजा।
  • सर आयरकूट ने हैदर अली को पोर्टोनोवो, पोलिलूर तथा सोलिंगपुर (जून 1781 से सितंबर 1781 तक) के स्थानों पर परास्त किया।
  • 1782 में हैदरअली ने पुनः अंग्रेजों को परास्त किया, किंतु युद्ध क्षेत्र में घायल हो जाने के कारण 7 दिसंबर, 1782 ई. को हैदरअली की मृत्यु हो गई।
  • हैदरअली की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र टीपू ने संघर्ष जारी रखा और 1783 ई. में बेडनोर पर अधिकार कर लिया।
  • नवंबर, 1783 ई. में अंग्रेजों ने पालघाट और कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया।
  • अंत में मार्च, 1784 ई. में अंग्रेजों और टीपू के बीच मंगलौर की संधि हो गई।



मंगलौर की सन्धि की शर्तें -

1. दोनों ने एक-दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटाने का वचन दिया।
2. दोनों पक्ष युद्धबंदियों को रिहा करेंगे।
3. टीपू ने मैसूर राज्य में अंग्रेजों के व्यापारिक अधिकार को माना।
4. अंग्रेजों ने आश्वासन दिया कि वे मैसूर के साथ मित्रता बनाये रखेंगे तथा संकट काल में उसकी मदद करेंगे।


तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1790-92 ई.



युद्ध के कारण-

1. टीपू के विभिन्न आंतरिक सुधारों द्वारा अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश की, जिसके कारण अंग्रेजों, निजाम एवं मराठों को भय उत्पन्न हो गया।
2. 1787 ई. में फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश की गई, जिससे अंग्रेजों को शंका हुई।
3. मंगलौर सन्धि टीपू व अंग्रेजों के मध्य यह अस्थायी युद्ध विराम था, क्योंकि दोनों की महत्त्वाकांक्षाओं व स्वार्थों में टकराव था। अतः दोनों गुप्त रूप से एक-दूसरे के विरूद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
4. अंग्रेजों द्वारा टीपू पर यह आरोप लगाया गया कि उसने अंग्रेजों के विरूद्ध फ्रांसीसियों से गुप्त समझौता किया है।
5. टीपू ने ट्रावनकोर के हिन्दू शासक पर आक्रमण कर दिया, जिसको अंग्रेजों की संरक्षकता प्राप्त थी। टीपू की इस कार्यवाही पर अंग्रेजों ने युद्ध की घोषाा कर दी।
इस युद्ध के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस था।
इस युद्ध के समय अंग्रेज, निजाम तथा मराठों ने टीपू सुल्तान के विरूद्ध एक त्रिगुट संधि की।
इस संधि के अनुसार निजाम तथा मराठों ने अपनी सैनिक टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों की सहायता करने का वायदा किया। 
1790 में मेजर जनरल मीडोज के नेतृत्व में हुई जो असफल रही। 
कार्नवालिस ने सेना की बागडोर अपने हाथ में ले ली। 12 दिसंबर, 1790 को वहल कलकत्ता से मद्रास के लिए रवाना हुआ। मंगलौर को जीतने के बाद कार्नवालिस ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम पर आक्रमण कर दिया।
अंग्रेजों की राजधानी श्रीरंगपट्टम को भी घेर कर 1792 ई. में उस पर अधिकार कर लिया।


23 मार्च, 1792 ई. को दोनों पक्षों के बीच ‘श्रीरंगपट्टम’ की सन्धि हो गई। जिसके अंतर्गत -

टीपू को अपने आधे राज्य से हाथ धोना पड़ा।
कृष्णा से लेकर पेन्नार नदी के आगे तक विस्तृत भाग निजाम को दे दिया गया।
तुंगभद्रा नदी तक विस्तृत भाग मराठों को दिया गया।
अंग्रेजों को पश्चिम में मालाबार एवं कुर्ग के राज्य पर सर्वोच्च सत्ता, दक्षिण में डिंडीगुल और आसपास के ज़िले तथा पूर्व में बारामहल जिले मिले।
टीपू को 30 लाख पौंड से अधिक हर्जाना देना पड़ा।


चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1799 ई.


फ्रांसीसी क्रांति ने टीपू के अंदर नई आशा का संचार किया तथा वह फ्रांस के जैकोबिन क्लब का सदस्य बन गया। श्रीरंगपट्टम में फ्रांसीसियों को ‘स्वतंत्रता वृक्ष’ लगाने की अनुमति दी तथा अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित किया।
टीपू ने नेपोलियन के साथ पत्र व्यवहार किया तथा अरब देश, काबुल, कुस्तुनतूनिया, बसई और मॉरिशस में अपना दूत भेजा।
इस युद्ध के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली था।
वेलेजली ने 22 फरवरी 1799 को टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। उसने निजाम तथा मराठों से टीपू के विरुद्ध संधि की।
4 मई, 1799 को अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टम के दुर्ग पर पूरी तरह कब्जा कर लियां टीपू सुल्तान श्रीरंगपट्टम की रक्षा करता हुआ मारा गया।
मैसूर पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने मैसूर की गद्दी पर पुराने हिंदू राजवंश अड्यार वंश के एक बालक कृष्ण राय को बैठाया।
कुशासन के कारण 1831 में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने मैसूर को कंपनी के सीधे शासन में ले लिया।

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