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फिर वही मानसिकता

byDivanshuGS -October 21, 2017
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  • लोकतंत्र बुद्धिजीवियों की मानव समाज को सबसे बड़ी देन मानी जाती है। मानव समाज का लगभग शिक्षित व्यक्ति वर्तमान में लोकतंत्र का समर्थन करता है। इसकी शरण पा स्वतंत्र अभिव्यक्ति व्यक्त करता है और स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में कई खूबियां विद्यमान है। भारतीय जनमानस ने राजवंशों एवं विदेशी शासन के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई लड़कर लोकतंत्र को अपनाया है। भारतीयों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से सभी को समान अवसर प्रदान किया हैं। आजादी के बाद से भारतीय जनमानस स्वतंत्र गणराज्य के नागरिकों में गिने जाते है, तो उन्हें यह जान शुकून मिलता है कि उनकी स्वजागृत्ति लोकतंत्र की स्थापना के काम आयी हैं।
  • लोकतंत्र की निष्पक्षता भारतीय जनमानस में क्या महत्व रखती है? लोकतंत्र के बारे में भारतीय जनमानस में क्या स्वतंत्र अभिव्यक्ति है? क्या जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी योग्यता का समुचित उपयोग निष्पक्षता के रूप में कर रहे है? इन प्रश्नों के संदर्भ में भारतीय लोकतंत्र की परिकल्पना कुंठित नजर आती हैं। भारतीय लोकतंत्र के मापदण्ड संविधान संहिता में लिखित रूप में हैं। यही संहिता भारतीय जनमानस केा दिशा-निर्देश देता हुआ प्रतीत होता है, जो केवल सिद्धांत रूप में है। आज भारतीय जनमानस प्राचीनकालीन मानसिकता से ग्रस्त है।

  • प्राचीनकाल में भारतीय जनमानस ने राजवंशों का उदय किया था। ऐसा नही है कि इन लोगों ने राजवंशों को वंशानुगत किया था, बल्कि इन्होंने अपने अधिकारों तथा सम्पत्ति की रक्षा के लिए एक योग्य पात्र व्यक्ति को अपने प्रशासक के रूप में चुना तथा उसे शासन के सभी अधिकार दिये गये थे। उस समय प्रशासक ने जनमानस की मानसिकता को समझते हुए, यह पद स्वीकार किया था और प्रारम्भिक कुछ शताब्दियों तक तो इसके अच्छे परिणाम रहे। इस प्रकार जनमानस के स्वतंत्र अधिकारों की रक्षा ये राजवंश करते रहे और एक अच्छे राजा ने अपनी प्रजा को पुत्रवत् पाला भी था, जैसे- अशोक महान, चन्द्रगुप्त द्वितीय आदि।
  • मानव स्वभावतः महत्वाकांक्षी प्राणी है, इन्हीं महत्वाकांक्षाओं के कारण प्रकृति सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी है। आदिकाल से ही यह महत्वाकांक्षा मानव में जाग्रत थी। इसलिए प्राचीनकाल में जनमानस द्वारा दिये गये दायित्वों की रक्षा करने का कर्त्तव्य समझ महत्वाकांक्षी व्यक्तियों ने राजवंश को वंशानुगत बना दिया। इन राजवंशों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जानमानस के द्वारा प्रदान दायित्वों को ताक पर रख दिया और अपने स्वार्थ लिप्सा की संतृप्ति में रत हो गये। इस स्वार्थी महत्वाकांक्षा ने सामान्य जनमानस का कोई ख्याल नही रखा तथा अब यही राजवंश शासन सत्ता में अपना वर्चस्व बनाये रखना अपना अधिकार समझने लगे।
  • अब प्राचीनकाल में राजवंशों ने जनमानस की मनोवृत्ति को समझना प्रारम्भ कर दिया। वे लोगों की मानसिकता के अनुसार शासन करने लगे थे। जैसे- अशोक ने अहिंसा का मार्ग अपनाकर लोगों को अपने आत्मोत्थान के लिए सहयोग दिया, तो किसी राजवंश ने धर्म के माध्यम से जनमानस को अपनी ओर आकर्षित किया, तो किसी ने अपनी कुटिल नीतियों से जनमानस में भय का आतंक दिखाया, अकबर ने अपने विशाल साम्राज्य के लिए धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया, तो औरंगजेब ने धार्मिक कट्टरता से वर्ग विशेष का समर्थन प्राप्त किया, तो शिवाजी ने भी मराठा और हिन्दू धर्म से प्रेरित हो नये साम्राज्य का गठन किया, राजपूतों ने अपने साहस तथा वचनबद्धता का बखान कर मध्यकाल में हिल्दू राजाओं ने धर्म के रक्षार्थ स्वयं को समर्पित किया, तो शासकों ने मुस्लिम समुदाय को अपनी ओर करने के लिए जिहाद छेड़ा, लेकिन दोनों वर्ग के शासक जब शासन करते थे, तो वे एक कुशल प्रशासक की तरह अपनी प्रजा के प्रति क्या कर्त्तव्य बनते है, उन्हीें को निभाते थे। वे अपने उन वादो को ही निभाते थे जो शासक बनने के लिए किए गये थें।
  • वर्तमान में लोकतंत्र का भी यही हाल है। जहां भारतीय समाज में लोकतंत्र के प्रति अपनी दीवानगी है, वही लोग कर्त्तव्यों को भूल रहे है। फिर वही प्राचीन मानसिकता पांव पसार रही है। जिस प्रकार एक वंश के दो राजकुमारों में से राजा जब उनमें से किसी एक को युवराज घोशित करता था तो लोगों में दो राय बन जाती थी और वे आपस में लड़ने लगते थे। वैसे ही आज के लोकतंत्र की कहीनी है। लोगों ने स्वयं को मानसिक गुलाम बना जिया है। आज लोग दो दलों का समर्थन करते है तथा ये लोग इसके पीछे यही तर्क देते है कि मेरे बुजुर्ग तो कांग्रेस को अपना मत देते है, इसलिए मैं भी अपना मत कांग्रेस को ही दूंगा तथा यही हाल भाजपा वाले मतदाता का होता है और वह भी उस तर्क का समर्थन करता नजर आता है।
  • लगता है यह तर्क लोकतंत्र की हत्या कर पुनः आधुनिक राजतंत्र की नींव मजबूत करने की ओर कदम बढ़ा रहा है। ये लोग आधुनिक होकर भी प्राचीनकालीन मानसिकता के शिकार हो चुके है। वे स्वविवेक को खो चुके है। उन्होंने अपनी सोच को दलों की राजनीति में गिरवी रख दिया और वे फिर से गुलाम बनने की ओर अग्रसर है। यह मानसिकता निम्नस्तर की ओर धकेल रही है। उच्च स्तर पर भी वही मानसिकता अपनी स्वविवेक से निर्णय की शक्ति खो रही है अर्थात दो विभिन्न दलों के लोगों के बीच स्वार्थी महत्वाकांक्षा उत्पन्न हो रही है।
  • जिस प्रकार प्राचीनकालीन राजवंश में शासक अपने शासित राज्य में अपने समर्थक केा मंत्री पद पर नियुक्त करता था तथा सामंतों की शक्ति पर कोई प्रतिबंध नही होता था तथा स्वजन की अपेक्षाओं को ध्यान रखता था। आमजन को उपेक्षित कर उनके अधिकारों का हनन करता था। इसी प्रकार वर्तमान राजनीतिक लोकतंत्र में भी वही हो रहा है। योग्यता उपेक्षित हो रही है, अयोग्यता पूज रही है। वर्तमान लोकतंत्र में ऐसी अनेक विसंगतियां है, जिनसे गुलाम मानसिकता का प्रदर्शन होता है। भारतीय लोकतंत्र वही रूढ़िवादी परम्परा का निर्वहन कर रहा है, क्योंकि भारतीय सताज भी उसी परम्परा में गतिमान है। लोगों को लोकतंत्र से क्या मतलब उन्हें तो दो जून की रोटी मिल जाये तो फला दल को मत देते है, मैं भी उसी दल को मत दूंगा अर्थात वही गुलामी दासता का बखान उनकी जुबान पर आज भी है।
  • राजनीतिक दलों का गठन निज स्वार्थो को ध्यान में रखकर किया जाता है। ये वही राजवंश के सपोले है जो निज स्वार्थो को सर्वोपरि मानते है। दलों की विसंगतियों में अयोग्य छवि वाले लोग भी महत्वाकांक्षी पदो पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। वर्तमान में ये राजनीतिक दल एक-दूजे के भय से अपनी कमियों पर पर्दा डाल देते है। कमियां एक-दूजे की बताते अवश्य है लेकिन दूर कोई नही करता है। देश का प्रथम व्यक्ति भी इस मानसिकता का गुलाम बन अपने दायित्वों को अपने राजनीतिक दल के कंधों पर डाल रहा है, क्योंकि जब कोई व्यक्ति प्रथम व्यक्ति कहलाना चाहता है तो उसे पार्टी के पक्ष में ही अपने निर्णय देने होते हैं। अपने यही लोकतंत्र की बिड़म्बना है कि भारतीय राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जिन्होंने किसी पार्टी का समर्थन न कर देश हितार्थ कार्य किया था। वे इस पद पर दोबारा नही चुने गये। शायद इससे किसी राजनैतिक दल की महत्वाकांक्षा कुंठित हो रही थी। यही हाल राज्यों के राज्यपालों का है जो अपनी रूढ़िवादी मानसिकता की गुलामी से निजात नही पा पाये है वे भी यदि राज्य में प्रतिपक्ष का बहुमत है तो केन्द्र में अपने दल की सरकार के कहे अनुसार कार्य करते है, क्योंकि वे इस पद को प्राप्त करने के लिए अपने स्वविवेक को गिरवी रख देते है तथा अपनी पार्टी की महतवाकांक्षाओं को पूरा करने में राज्य के विकास को कुंठित करते है। यह तो प्राचीन काल में राजा के सामंतो जैसी स्थिति बन गयी है।
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