दुःख तो होता है,
सभ्यता खोने का।
कोई तो रोता है,
संग जो चले इसके,
खोने का गम तो होता है,
क्या प्रियतमा के खोने से,
प्रेमी को संताप नही होता।
वो सभ्य समाज का प्रहरी,
कितना सजग बन चुका था।
मिलन कितने हुए थे,
इस बार कुछ नया था।
वो विलाप कर उठा,
क्षीण होती मर्यादाओं से।
बोला किस तृण ने डूबो दिया ?
विकृत नजर आता हूं।
सभ्य समाज की चाह ने,
कितने विषाद उपजाये,
कौन कहता कि मनुज सभ्य है?
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