कम्पनियों का लूट ऑफर


  • जारी है सदियों से लूट का खेल। कोई तलवार के दम पर लूट कर चला गया तो कोई ऑफर देकर लूट रहे है। 
  • हां, इस लूट में समानता है वो अपराध करने की प्रवृत्ति आज भी जिन्दा है क्योंकि उस जमाने में शासित वर्ग अपनी मौजों को पूरा करने में और आज का बिजनेसमैन व बौद्धिक वर्ग अपने स्टेट्स को बनाये रखने के लिए लोगों को भ्रमित करते है।
  • अब देखिए त्यौहारों का सीजन है और बौद्धिक वर्ग का लूट ऑफर पूरे शबाब पर है। जिसे चाहे लूटे जिसे चाहे मुनाफे की इनाम दे दें।
  • पूरे साल मेहनत और फसलों की नीलामी में सिर्फ कर्ज। कैसी नियति है ये विधाता की या बौद्धिक वर्ग से उपेक्षित होने की।
  • क्यों, नहीं दिया हक़ उन्हें अपनी मेहनत का मेहनताना खुद चुनने का?
  • यह तो तकदीर वाले ही बौद्धिक वर्ग जो बिना लड़े ही आज अच्छी तनख्वाह पा रहे हैं और यदि ऐसा नहीं हो तो एकजुट होकर अपनी मांगें मनवा लेते हैं। 
  • आखिर कब तक?

  • किसान और मजदूर को कभी भी अपनी मेहनत का पूरा दाम नहीं मिला करता, क्योंकि उनके सामने कोई बिजनेस का फण्डा नहीं होता।
  • वे भविष्य पर, नहीं वर्तमान पर जीते हैं और इसे नियति का दिया मान संतोष कर लेते हैं। और काफी सही भी है क्योंकि बौद्धिक वर्ग के आगे रोना रोने के बजाय नियति को दोष देना सही है क्योंकि बौद्धिक वर्ग इसमें अपनी नेकी और मुनाफ़ा देखता है। 
  • अब देखिए बिजनेसमैन ग्रुप की जुगलबन्दी एक अपने उत्पाद बनाता है और एक विज्ञापन। जिन्हें दिखाया जाता है व अखबारों में छापा जाता है। कीमत खुद निर्धारित करते हैं और फिर ऑफरों की झड़ियां लागते हैं। जैसे उनके उत्पाद 10 हज़ार का है और ऑफर में सिर्फ 2500 हज़ार का ही हमें बेच रहे हैं।
  • इतना भी कोई ऑफर होता है 50%+20 प्रतिशत। अगर किसान ऐसे ऑफर दे तो शायद उनका कर्ज में बड़ा इजाफा होने लग जाए क्योंकि पहले ही नीलामी में कर्ज और विज्ञापन का खर्च भी तो कर्ज में जुड़ जाएगा। कर्ज वालों को कोई कैसे एड करने देगा, लोग पहले अपना दाम वसूलते हैं फिर कोई काम। ये सब किसान के बजट में नहीं। इसलिए तो उनको ऑफर की सूझती नहीं और उनके प्रोडक्ट केवल नीलाम होते हैं और सेठों के घर रोशन होते है क्योंकि ऑफरों का मजा तो वही लोग लेते हैं।
  • गजब जो पत्रकारिता आजादी के समय लोगों चेतना जगाती थी अब वो उस समय के त्याग की बलिवेदी पर मुनाफ़ा हर ओर से बटोर रही है।
  • यकीनन सब अपने अतीत को भूल गये हैं और नये रिकॉर्ड बनाने में जुटें है पर बेचारा किसान व मजदूर अपने अतीत से बेहतर जिन्दगी की आशा अब नहीं कर सकते क्योंकि ऑफर के जमाने में सब कुछ ठगा सा महसूस होता है।
  • किसान नीलामी में कर्ज पाता है वह अपने उत्पादों की बिक्री कैसे करे। 
  • क्या ऐसा सम्भव है कि वह भी ऑफर निकाले। ऐसा संभव नहीं है क्योंकि ऑफर बिना विज्ञापन के छपते नहीं और टीवी पर भी दिखते नहीं। अभी कोई किसान बड़ा बिजनेस मैन नहीं बना है इसलिए करोड़ों रुपये खर्च करने की हिम्मत नहीं। 
  • सच तो यह है कि उन्हें अभी तब पता नहीं कि खेती के लिए कितना इन्वेस्टमेन्ट हर साल करता है, उस खेती में कितने आदमियों की मेहनत लगी है?


  1. इंजन में कितना डीजल फूंक दिया, कितनी लाइट मोटर ने खर्च की?
  2. महिला की भूमिका बराबर रही पर क्या उसे हिस्सा मिला?
  3. बीज की कीमत व बोने में कितना खर्च आया?
  4. फसल कितनी खराब हुई? 
  5. शहर तक लाने में कितना खर्च हुआ? 
  6. पर बेचारा कर्ज के बोझ में कुछ सोच भी नहीं पता।
  7. और ऑफर की लूट में उसके बेटे-बेटी जरूर बड़ी भागीदारी निभाते हैं।
  8. दोस्तों मैं तो बस आपसे इतना कहना चाहता हूं थोड़े हिसाब से खर्च करो, खरीदो पर अपने दिमाग से।

दिवांशु: एक सभ्यता निर्माता।
लेखक - राकेश सिंह राजपूत
मोबाइल - 9116783731
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