कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत क्या है? उसका विस्तृत विवेचना कीजिये।

मण्डल सिद्धांत  

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  • प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिन्तकों के द्वारा अनेक महत्वपूर्ण सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। जो न केवल उस समय की राजनीतिक व्यवस्था के लिए अत्यधिक आवश्यक एवं समयानुकूल भी थे, अपितु इन सिद्धांतों का आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में भी महत्व स्वीकार किया जा रहा है। एक सम्प्रभु राज्य को केवल आन्तरिक प्रशासन प्रर निगरानी की आवश्यकता नहीं होती है अपितु बाहरी मामलों अर्थात् अन्तरराज्यीय संबंधों पर उचित ध्यान देना पड़ता है ताकि कोई अन्य राज्य उस पर आक्रमण कर उसकी एकता, अखण्डता एवं सम्प्रभुता का अपहरण न कर सके। वर्तमान में भी प्रत्येक देश अपनी विदेश नीति को आधार मानकर संबंधों का निर्धारण करता है जिसका मूलभूत आधार ‘राष्ट्रीय हित’ होता है, इसलिए यह कहा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में स्थायी शत्रु या स्थायी मित्र नहीं होते, अपितु स्थायी राष्ट्रीय हित होते हैं।
  • भारतीय राजतंत्र का एक प्रमुख सिद्धांत मण्डल सिद्धांत है। अंतरराज्यीय संबंधों में, राज्य को उसकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर मित्र-राष्ट्र या शत्रु राष्ट्र की संज्ञा दी गई है। राज्य की सुरक्षा तथा अस्तित्व को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से आचार्य कौटिल्य द्वारा अपनी कृति अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण के दूसरे अध्याय में मंडल सिद्धांत का विस्तृत वर्णन किया है। कौटिल्य द्वारा अंतरराज्यीय संबंधों का यह सिद्धांत आदर्शों तथा वास्तविकता दोनों को ध्यान में रखकर इतना परिपूर्ण है कि यह सभी युगों में प्रासंगिक रहा है।
  • आचार्य कौटिल्य ने राज्यों के पारस्परिक व्यवहार के संबंधों का स्वरूप निर्धारित करते हुए दो सिद्धांतों का विवेचन किया है- पड़ोसी राज्यों के साथ संबंध स्थापित करने के लिए मंडल सिद्धांत और अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए षाड्गुण्य नीति

  • मंडल का अर्थ है- ‘‘राज्यों का वृत्त’’
  • यह एक प्रकार की रणनीति है जिसमें विषय की आकांक्षा रखने वाला राज्य अपने चारों ओर के अन्य राज्यों को मण्डल मानता है।
  • मण्डल सिद्धांत एक 12 राज्यों के वृत्तों पर आधारित है। इसके अंतर्गत मण्डल का केन्द्र ऐसा राज्य होता है जो पड़ोसी राज्य को जीतकर अपने में मिलाने का प्रत्यनशील रहता है। इसे वह विजिगीषु राजा कहता है। मण्डल में 12 राज्य होते हैं- विजिगीषु, अरि, मित्र, अरि-मित्र, मित्र-मित्र, अरि मित्र-मित्र, पाष्र्णिग्राह, आक्रंद, पाष्र्णिग्राहासार, आक्रंदसार, मध्यम और उदासीन। उन्होंने मण्डल के इन सभी देशों के एक-दूसरे के साथ संबंधों को ही मण्डल सिद्धांत नाम दिया है।
  • कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत भौगोलिक आधार पर यह दर्शाता है कि किस प्रकार विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के पड़ोसी राज्य उसके मित्र या शत्रु हो सकते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार मण्डल के केन्द्र में एक ऐसा राजा होता है, जो अन्य राज्यों को जीतने का इच्छुक है, इसे ‘विजीगीषु’ कहा जाता है जबकि अरि, मित्र अरि-मित्र, मित्र-मित्र और अरि मित्र-मित्र यानी पांच राज्य विजीगीषु के सम्मुख तथा पार्ष्णिग्राह, आक्रंद, पार्ष्णिग्राहसार तथा आक्रन्दसार यानी चार राजय के पृष्ठभाग में होते हैं। शेष दो राज्य मध्यम तथा उदासीन उसके एक तरफ स्थित होते हैं इन सभी राज्यों का चरित्र इस प्रकार हैं-

  1. विजीगीषु- वह राज्य जो अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने की आकांक्षा रखता हो। यह मण्डल के केन्द्र में स्थित होता है।
  2. अरि- विजीगीषु की सीमा पर स्थित या सामने वाला राज्य जो उसका शत्रु होता है, इसलिए यह अरि राज्य होता है।
  3. मित्र- अरि राज्य के सामने का राज्य मित्र होता है क्योंकि वह अरि राज्य का शत्रु होने के कारण स्वाभाविक रूप से विजीगीषु का मित्र होता है।
  4. अरिमित्र- मित्र के आगे वाला राज्य अरिमित्र कहलाता है क्योंकि वह अरि राज्य का मित्र तथा विजीगीषु का शत्रु होता है।
  5. मित्र-मित्र - अरि मित्र के सामने वाला राज्य मित्र-मित्र होता है क्योंकि वह मित्र राज्य का मित्र होता है। यही कारण है कि वह विजिगीषु राज्य के साथ भी मित्रता रखता है।
  6. अरि मित्र-मित्र - अरि मित्र-मित्र राज्य अरिमित्र राज्य का मित्र राज्य होता है। इसलिए वह विजीगीषु का शत्रु राज्य होता है।
  7. पार्ष्णिग्राह (पीठ का शत्रु) - विजीगीषु के पीछे स्थित राज्य पार्ष्णिग्राह कहलाता है। यह राज्य अरि राज्य की तरह विजीगीषु का शत्रु होता है।
  8. आक्रंद- पार्ष्णिग्राह राज्य के पीछे स्थित राज्य आक्रंद कहलाता है। यह राज्य विजीगीषु का मित्र राज्य होता है।
  9. पार्ष्णिग्राह सार- पार्ष्णिग्राह सार राज्य पार्ष्णिग्राह का मित्र राज्य होता है तथा आक्रंद राज्य के पृष्ठ भाग पर स्थित होता है। यह विजीगीषु का शत्रु राज्य होता है।
  10. आक्रंद सार- पार्ष्णिग्राह सार के पीछे स्थित राज्य आक्रंद सार कहलाता है। यह राज्य आक्रंद राज्य का मित्र होने के कारण विजीगीषु का भी मित्र होता है।
  11. मध्यम- इस प्रकार का राज्य ऐसा होता है जो विजीगीषु तथा अरि दोनों ही प्रकार के राज्यों की सीमाओं से लगा होता है। यह राज्य दोनों से अधिक शक्तिशाली होने के साथ ही जरूरत पड़ने पर वह इन दोनों में से किसी की भी सहायता कर सकता है या दोनों का मुकाबला भी कर सकता है।
  12. उदासीन- इस प्रकार का राज्य विजीगीषु, अरि एवं मध्यम राज्य की सीमाओं से अलग होता है। यह राज्य अति शक्तिशाली होता है और अपनी इच्छानुसार इन तीनों राज्यों में से किसी की भी आवश्यकता होने पर सहायता कर सकता है।

कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित मण्डल सिद्धांत को निम्न चित्र के माध्यम से समझा जा सकता है-


  • उक्त 12 राज्यों का समूह राज्य मण्डल कहलाता है। कौटिल्य ने मण्डल सिद्धांत के द्वारा यह परिभाषित करने की पूरी कोशिश की है कि भौगोलिक आधार पर किसी राज्य विशेष का कौन सा राज्य मित्र हो सकता है तथा कौनसा शत्रु हो सकता है। उनके अनुसार यह सिद्धांत यह भी बताता है कि एक राज्य को दूसरे राज्य के साथ किस तरह का संबंध रखना चाहिए तथा अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों और नीतियों का निर्धारण किस तरह करना चाहिए।

मण्डल सिद्धांत का विश्लेषण

  • कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत एक व्यावहारिक एवं पारदर्शिता पूर्ण सिद्धांत है। इस सिद्धांत में कौटिल्य ने राज्य के चारों ओर बनने वाले मण्डल (दूसरे राज्यों के घेरा) का विश्लेषण किया है। उसके मण्डल सिद्धांत के प्रमुख तत्व निम्न हैं-
  • 1. कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत 12 राज्यों के एक केंद्र की कल्पना करता है।
  • 2. मण्डल सिद्धांत में राज्यों को विशेष नाम एवं विशेष प्रकृति का उल्लेख किया गया है।
  • 3. कौटिल्य के अनुसार यह संख्या घट-बढ़ सकती है।
  • 4. कौटिल्य के अनुसार मध्यम एवं उदासीन राज्य को छोड़कर अन्य सभी राज्यों की शक्ति लगभग समान है।
  • 5. कौटिल्य की स्पष्ट मान्यता है कि राज्य अपने पड़ोसी का शत्रु तथा उसके पड़ोसी का मित्र होता है।
  • 6. उसकी मान्यता है कि राज्य को पड़ोसी राज्य से सतर्क रहते हुए अपना गठबंधन बनाना चाहिए।
  • 7. यह शक्ति संतुलन के सिद्धांत पर आधारित है। यह राज्यों के आपसी सहयोग पर आधारित है।
  • कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार स्थापित किया गया था परंतु आज की बदली परिस्थितियों में जिसमें भूमण्डलीकरण का दौर है तथा सैनिक शक्ति की अपेक्षा आर्थिक शक्ति का महत्व बढ़ गया है, प्रासंगिक नहीं रह गया है। इसके बावजूद तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उसकी यह महत्वपूर्ण देने है।

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