हिन्दी साहित्य का नामकरण

हिन्दी साहित्य का नामकरण


  • हिन्दी साहित्य के काल विभाजन को लेकर विद्वानों में अधिक मतभेद नहीं है, केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर मतभेद है।  
  • 10वीं शताब्दी के कालखण्ड को हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार कर लिया जाए तो मतभेद समाप्त हो जाता है ​क्योंकि इस कालखण्ड की रचनाएं अपभ्रंश में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ है। 
  • हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखण्डों के नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद है। मुख्यत: 10वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक के आरम्भिक कालखण्ड (आदिकाल) और 17वीं शताब्दी से 19वीं तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है। 

10वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक के कालखण्ड का विभिन्न विद्वानों द्वारा किया गया नामकरण:

  • चारणकाल - सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन
  • प्रारम्भिक काल - मिश्रबन्धु
  • वीरगाथाकाल - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  • सिद्धसामंत काल - राहुल सांकृत्यायन
  • बीजवपन काल - महावीर प्रसाद द्विवेदी
  • वीरकाल - विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
  • आदिकाल - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • संधिकाल एवं चारणकाल - डॉ. रामकुमार वर्मा

चारणकाल Charankal

  • ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य के इतिहास के आरम्भिकाल का नामकरण 'चारणकाल' किया है, किंतु इस नामकरण का कोई ठोस प्रमाण वे प्रस्तुत नहीं कर सके। उन्होंने चारणकाल 643 ई. से माना है जबकि 1000 ई. तक चारण कवियों द्वारा लिखित कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है। अत: यह नामकरण उपयुक्त नहीं है। 

प्रारम्भिक काल

  • मिश्रबन्धुओं ने 643 ई. से 1387 ई. तक के काल को 'प्रारम्भिक काल' नाम से अभिहित किया है। यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नहीं है। यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है। अत: यह नामकरण भी उपयुक्त एवं तर्कसंगत नहीं है। 

वीरगाथा काल Virgatha Kal

  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में संवत् 1050 से लेकर 1375 ईस्वी तक की समयावधि को 'वीरगाथा काल' नाम दिया है। उन्होंने आदिकाल में वीरगाथाओं की प्रमुखता को ध्यान में रखकर इसे 'वीरगाथाकाल' के नाम से अभिहित किया। 
  • अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है- आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है- धर्म, नीति, श्रृ्ंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएं दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढ़ाइयां आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। 
  • राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबंध परम्परा 'रासो' के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने 'वीरगाथा काल' कहा है। 

शुक्ल ने इसमें तीन प्रमुख बातों पर ध्यान दिया है- 

1. वीरगा​थात्क ग्रंथों की प्रचुरता

2. जैनों द्वारा प्राचीन ग्रंथों को धार्मिक साहित्य घोषित करके उसे रचनात्मक साहित्य की परिधि से निकाल देना और इसी प्रकार नाथों और सिद्धों की रचनाओं को शुद्ध साहित्य में स्थान न देना।

3. मुख्य बात उन रचनाओं की है, जिनमें भिन्न-भिन्न विषयों पर फुटकर दोहे मिलते हैं। 

शुक्ल जी ने इस युग का नामकरण करने के लिए जिन 12 ग्रंथों को आधार बनाया वे ग्रंथ हैं— 

  • 1. विजयपाल रासो- नल्लसिंह वि.सं 1355, 2. हम्मीर रासो - शारंगधर वि.सं. 1357, 3. कीर्तिलता - विद्यापति संवत 1460, 4. कीर्तिपताका - विद्यापति वि.सं. 1460, 
  • उपर्युक्त रचनाएं अपभ्रंश भाषा में लिखी गई हैं। 
  • 5. खुमाण रासो- दलपति विजय, 6. बीसलदेव रासो — नरपति नाल्ह सं. 1292, 7. पृथ्वीराज रासो— चन्दबरदाई सं. 1225—49, 8. जयचन्द प्रकाश— भट्ट केदार, 9. जयमंयक जसचन्द्रिका'— मधुकर संवत् 1240, 10. परमाल रासो— जगनिक, 11. खुसरो की पहेलियां— अमीर खुसरो, 12. विद्यापति की पदावली— विद्यापति।

  • आचार्य शुक्ल ने जिन 12 रचनाओं को नामकरण का आधार माना, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए 'वीरगाथाकाल' नामकरण को निरथ्रक सिद्ध किया है। 
  • जैसे बीसलदेव रासो और खुमाण रासो नए शोध परिणामों के आधार पर 16वीं शताब्दी में रचित माने गए हैं। 
  • हम्मीर रासो, जयचन्द्रप्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका नोटिस मात्र है। इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्ध प्रामाणिक मान लिया गया है। 
  • परमाल रासो व आल्हाखंड के मूल का आज कहीं पता नहीं लगता और खुसरो की पहेलियां तथा विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नहीं है। इसेक अतिरिक्त इस काल में केवल वीरकाव्य ही नहीं लिखे गए अपितु धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य की भी रचनाएं हुई है। 

सिद्ध सामंत काल

  • राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण 'सिद्ध सामंत काल' किया है। इनके मतानुसार इस कालखण्ड के सामाजिक जीवन पर सिद्धों का और राजनीति पर सामंतों का एकाधिकार था। इस युग के कवियों ने अपनी रचनाओं में सामंतों का यशोगान ही प्रमुख रूप से किया है। इस युग की अंतर्बाह्य प्रवृत्तियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वहां सिद्धों और सामंतों का ही वर्चस्व था।
  • इस नामकरण से तत्कालीन सामंती व्यवस्था का तो पता चलता है परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का उद्घाटन नहीं हो पाता। इस नामकरण से नाथ पंथी और द्ढ़ योगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो पाता। 

बीजवपन काल

  • आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण 'बीजवपन काल' किया है। परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है। भाषा की दृष्टि से यह काल भले ही बीजवपन का काल हो, परंतु साहित्यिक प्रवृत्ति की दृष्टि से स्थिति ऐसी नहीं थी। 
  • इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियां शैशव में थी, जबकि ऐसा नहीं है। साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त था। अत: यह नाम उचित नहीं है। 

वीरकाल

  • आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल का नामकरण 'वीरकाल' किया है। 
  • यह नाम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दिये गए नाम 'वीरगाथा काल' का रूपान्तर मात्र है, किसी नवीन तथ्य को प्रस्तुत करने वाला नहीं है। 

संधि एवं चारणकाल

  • डॉ. रामकुमार वर्मा ने आदिकाल को दो खण्डों में विभाजित कर सन्धिकाल एवं चारणकाल नाम दिया हे। 
  • सन्धिकाल भाषा की ओर संकेत करता है और चारणकाल से एक वर्ग विशेष का बोध होता है। इस नामकरण में भी यह त्रुटि है कि इसमें किसी साहित्यिक प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया। किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उसे काल का नामकरण उचित नहीं है। 
  • अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है। 

आदिकाल

  • आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशत: संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया- नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता। इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने 'आदिकाल' रखा। 
  • अपने मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि - 'वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अ​छूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।'
  • इस प्रकार वास्तव में 'आदिकाल' प्रारम्भ का न होकर परम्परा के विकास का सूचक है। इस नाम से 7वीं-8वीं शताब्दी के बौद्ध, सिद्ध, नाथयोगियों के साथ वीर गाथा काव्यों और अब्दुर्रहमान, विद्यापति तथा खुसरो आदि को एक सूत्रता में समेटा जा सकता है। और फुटकार कवियों के नाम गिनाने से बचा जस सकता है। 
  • आदिकाल नाम में हिन्दी काव्यरूपों एवं भाषा के अंकुरित होने का भाव भी आ जाता है। अत: यहीं नाम उपयुक्त ठहरता है। अधिकांश विद्वानों द्वारा भी 'आदिकाल' नाम ही मान्य रहा है। 

14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक के कालखण्ड का नामकरण

I. 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक के कालखण्ड को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने संवत् 1575 से लेकर 1700 ई. तक के कालखण्ड को पूर्वमध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है। 

इस युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए इस कालावधि का नामकरण 'भक्तिकाल' किया है। इसे परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी 'भक्तिकाल' नामकरण सर्वमान्य है। 

II. 17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण विषयक मतभेद

रीतिकाल — आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

  • आचार्य शुक्लजी ने संवत् 1700 से लेकर 1900 ई. तक के समय को उत्तर मध्यकाल नाम दिया है। 
  • इस युग के साहित्य में रीति (लक्षण) ग्रंथों के लेखन की परम्परा को देखते हुए इसे 'रीतिकाल' कहना तर्कसंगत माना है। 

इस काल के नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद है—

  • अलंकृतकाल — मिश्रबन्धु
  • रीतिकाल — आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  • कलाकाल — रमाशंकर शुक्ल 'रसाल'
  • श्रृंगार काल — पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र 


अलंकृत काल

  • मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण 'अलंकृत काल' करते हुए कहा है कि - 'रीतिकालीन कवियों' ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है। उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं। इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृकाल है। 
  • इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्र​दर्शित की। 
  • महाराजा जसवंतसिंह का 'भाषा भूषण', मतिराम का 'ललित ललाम', केशव की 'कविप्रिया', 'रसिकप्रिया' तथा सूरति मिश्र की 'अलंकार माला' आदि ग्रंथ महत्वपूर्ण है। 
  • परंतु इस काल को 'अलंकृतकाल' नाम देना उचित नहीं है क्योंकि अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। 
  • यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचनक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष भाव एवं रस की अवहेलना होती है तथा बिहारी और मतिराम जैसे रससिद्ध ​कवि, जिनकी कविता में भाव की प्रधानता है, उनकी कविता के साथ न्याय नहीं हो माता। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है। 

कलाकाल

  • रमाशंकर शुक्ल 'रसाल' ने इस काल को 'कलाकाल' नाम से अभिहित किया है। उनका कहना है कि 'मुगल सम्राट शाहजहां का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में 'काल के गाल का अश्रू' बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत: यह कलाकाल है। 
  • कलाकाल नाम से भी वस्तुत: कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है। कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है। साथ ही इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना की अवमानना हो जाती है। 


श्रृंगार काल

  • पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को 'श्रृंगार काल' कहना अधिक उपयुक्त समझा है। उनके द्वारा दिया गया यह नामकरण इस काल में प्रयुक्त श्रृंगार रस की प्रधानता को लक्ष्य कर किया गया है। 

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