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जैव विकास का सिद्धांत

byDivanshuGS -March 12, 2021
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जैव विकास का सिद्धांत


Theories of Organic evolution 


जीव-जगत में विकास के कारण ही नई-नई जातियां बनी और यह क्रम आज भी चल रहा है। जैव विकास के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

1. लैमार्क का सिद्धांत

2. डार्विन का सिद्धांत

3. उत्परिवर्तन का सिद्धांत


लैमार्क का सिद्धांत-

  • यह सिद्धांत 1809 ई. में जॉन बेप्टिस्ट डी लैमार्क द्वारा दिया गया था इसे उपार्जित लक्षणों की वंशानुगति का सिद्धांत भी कहते हैं।
  • लैमार्क के अनुसार वातावरण में हुए परिवर्तनों के कारण अधिक प्रयोग में आने वाले अंग अधिक विकसित तथा कम प्रयोग में आने वाले अंग लुप्त हो जाते हैं।
  • जिराफ अफ्रीका में पाया जाता है। इसकी टांगें और गर्दन लम्बी होती है। यह ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की पत्तियाँ खाकर जीवन व्यतीत करता है। लैमार्क के अनुसार उनके पूर्वज इतने लम्बे नहीं थे। वे आसानी से लेते थे। धीरे-धीरे वातावरण में परिवर्तन होने के कारण रेगिस्तान बनने लगे। घास-फूस समाप्त हो गई। पेड़ों की पत्तियाँ जो ऊँचाई पर थी, को प्राप्त करने के लिए जिराफ को अपनी अगली टाँगों और गर्दन का अधिक उपयोग करना पड़ा । फलस्वरूप उनकी टाँगें व गर्दन लम्बी होती गई। ये लक्षण पीढ़ी दर पीढ़ी वंशानुगत हो गए।
  • सर्प भूमि में बने बिलों में रहता है। पैर बिल में घुसने में बाधा उत्पन्न करते थे इसलिए पैरों का उपयोग कम करने के कारण ये छोटे होते गए और अंत में लुप्त हो गए।
  • वैज्ञानिकों ने लैमार्क के सिद्धांत का खण्डन किया उनके अनुसार अगर चूहों की पूँछ पीढ़ी-दर-पीढ़ी काटी जाती है तो भी कभी पूँछ कटा हुआ चूहा पैदा नहीं होता है। लड़कियों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी कान छिदवाए जाते हैं परन्तु कभी कान छेदी हुई लड़की पैदा नहीं होती है।


डार्विन का सिद्धांत-

चार्ल्स डार्विन ने जैव विकास हेतु प्राकृतिक वरण का सिद्धांत दिया। डार्विन के सिद्धांत के विभिन्न चरण निम्नानुसार है-

सजीवों में सन्तानोत्पादन-

  • प्रत्येक जीव अपनी जाति को बनाए रखने के लिए संतानोत्पादन करता हैं। हाथी अपने जीवनकाल में लगभग 8 संतानें उत्पन्न करता है। यह एक धीमा प्रजनक है। एक जोड़ी हाथी नियमित रूप से जनन करने लगे तथा इनसे उत्पन्न सभी संतानें नियमित रूप से जनन करती रहे तो 750 वर्ष में इस एक जोड़ी से लगभग 1900000 हाथी उत्पन्न हो जाएँगे और हाथियों की संख्या बहुत अधिक हो जाएगी। परन्तु ऐसा नहीं होता है।


जीवन संघर्ष-

  • अधिक जीवों की संतानोत्पत्ति से जीवों की संख्या बढ़ने से जीवों में आपस में आवास और भोजन के लिए संघर्ष होने लगता है। इसे जीवन संघर्ष कहते हैं। यह संघर्ष अपनी जाति के जन्तुओं व अन्य जाति के जन्तुओं से भी होता है, जो सक्षम है वही जीएगा। संघर्षों के कारण विनाश होने से प्रकृति में जीवों की संख्या संतुलित एवं नियमित रह जाती है।

प्राकृतिक वरण-

  • जीवन संघर्ष में वे जन्तु ही जीवित रहते हैं जो अपने आप को प्रकृति अर्थात् वातावरण के अनुसार ढाल लेते हैं। यदि वे इसमें सक्षम नहीं होते है, तो वे नष्ट हो जाते हैं।

नई जातियों की उत्पत्ति-

  • लाभदायक लक्षणों की वंशागति पीढ़ी-दर-पीढ़ी होती रहती है व हानिकारक अनावश्यक लक्षण धीरे-धीरे विलुप्त या अवशेषित हो जाते हैं। कई बार विभिन्नताएँ इतनी बढ़ जाती हैं कि हजारों लाखों वर्षों के बाद नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अत्यधिक भिन्न हो जाती है और एक नई जाति का विकास हो जाता है। 
  • उदाहरण के लिए आरम्भ में कुत्ता, गीदड़ व भेड़िया तीनों एक ही जाति के सदस्य थे परन्तु वातावरण परिवर्तन के कारण स्वयं को वातावरण के अनुसार बनाने के लिए इनके आकार व शारीरिक लक्षणों में अन्तर आ गया और हजारों वर्षों के बाद अन्त में कुत्ता, गीदड़ व भेड़िया तीन नई जातियाँ विकसित हो गई ।

नव डार्विनवाद-

  • डार्विन ने अपने पुराने सिद्धान्त में नए दृष्टिकोण जोड़ कर नव डार्विनवाद का सिद्धान्त दिया। 
  • इसके अनुसार नई जाति की उत्पत्ति जाति विशेष के सदस्यों में जीन परिवर्तन के कारण होती है। केवल आनुवंशिक विभिन्नताएं वंशानुगत होती है व वातावरणीय विशेषताएं जन्तु के साथ समाप्त हो जाती हैं।


उत्परिवर्तन का सिद्धान्त-

  • ह्युगो डी ब्रीज़ नामक वैज्ञानिक ने उत्परिवर्तन का सिद्धान्त दिया। उन्होंने जब पौधों पर परीक्षण किया तो पाया कि कुछ पौधे अकस्मात् अपनी जाति से बिल्कुल भिन्न उत्पन्न हुए ये लक्षण वंशागत होकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानान्तरित होते हैं। इन्हीं अकस्मात वंशागत लक्षणों परिवर्तनों की क्रिया को उत्परिवर्तन कहते हैं। जीवों में उत्परिवर्तन निम्नलिखित कारणों से हो सकते हैं-

1. जीनों की संख्या में परिवर्तन

2. जीनों की व्यवस्था में परिवर्तन

3. जीनों की संरचना में परिवर्तन

उत्परिवर्तन के साधन- मस्टर्ड गैस, नाइट्रस अम्ल, फिनॉल, एक्स किरणें, बीटा किरणें आदि।

महत्वपूर्ण ​तथ्य

  • जैव-विकास की क्रियाविधि एवं नई जातियों के उद्भवन की प्रक्रिया पर अनेक वैज्ञानिकों ने सिद्धान्त प्रस्तुत किए । लेमार्क, डार्विन एवं डीव्रीज़ उनमें प्रमुख थे।
  • लेमार्क ने उपार्जित लक्षणों की वंशागति को जैवविकास एवं नई जाति के उद्भव हेतु आधार बनाया। इसकी आलोचना हुई। कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों ने लेमार्कवाद को नए रूप में प्रस्तुत कर जीवों पर वातावरण के प्रभाव को प्रदर्शन किया है। इसे नवलेमार्कवाद कहते हैं।
  • डार्विन अपने सिद्धान्त के पक्ष में कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये। उनके सिद्धान्त की भी पर्याप्त आलोचना हुई किन्तु बाद में आनुवंशिकी के ज्ञान, समष्टियों की आनुवंशिकी, जीन-प्रवाह, विविधता का आनुवंशिक आधार आदि के संदर्भ से प्राकृतिक वरण को पुनः सप्रमाण प्रस्तुत किया गया। उनके इस नए सिद्धान्त को नवडार्विनवाद या सिंथेटिक थ्योरी कहा गया।
  • नवडार्विनवाद के पक्षधरों ने सूक्ष्म जीवों में चरण प्रभाव को दर्शाया। इंग्लैण्ड के औद्योगिक क्षेत्रों में पतंगों पर मेलेनिजम, मच्छरों में कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध, सिकलसेल एनिमिया जैसे उदाहरण प्राकृतिक वरणवाद के पक्ष में प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करने के साथ ही जैव-विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करने में सहायक हुए हैं।
  • डार्विन ने प्राकृतिक वरणवाद का विचार मनुष्य द्वारा जन्तुओं एवं पौधों में जनन संबंधी प्रयोग द्वारा किए जाने वाले कृत्रिम वरण को देखकर आया था। वरण नई जातियों की उत्पत्ति के लिए महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। कृत्रिम चयन या वरण से विशिष्ट दिशा में वरण प्रभाव बनता है जिससे जीन एवं एलील फ्रिक्वेंसी में अन्तर आता है जो कि जैव विकास की आवश्यक प्रक्रिया है। इसी से नई ब्रीड, स्ट्रेन्स, किस्में, प्रजाति एवं उपजातियाँ अस्तित्व में आई हैं।
  • डार्विन ने अनुकूलन की क्षमता को प्रत्येक जीवधारी की विशेषता बतलाया था। अनुकूलनों का भी आनुवंशिकीय आधार होता है। जे. एवं ई. लेडरबर्ग ने बैक्टीरिया में रेप्लिका प्लेटिंग प्रयोग का प्रदर्शन कर अनुकूलन की उत्पत्ति में उसके आनुवंशिक आधार उत्परिवर्तन की प्रक्रिया को दर्शाया तथा वरण की प्रक्रिया को प्रमाणित किया।
  • डीव्रीज ने ओइनोथेरा लेमार्किया नामक पौधे के अवलोकनों के आधार पर आकस्मिक परिवर्तनों को विकास का मुख्य कारण बतलाया।


डार्विन द्वारा प्रस्तुत प्राकृतिक वरणवाद का सिद्धान्त निम्न में से किन तथ्यों पर आधारित था?

अ. अंगों के उपयोग एवं अनुपयोग से परिवर्तन

ब. अत्यधिक जनन दर, जीवन-संघर्ष एवं योग्यतम की उत्तरजीविता

स. उपार्जित लक्षणों की वंशागति

द. उत्परिवर्तन

उत्तर— ब


उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त दिया था—

अ. डी ब्रीज 

ब. लेमार्क

स. रसेल

द. डार्विन

उत्तर— ब


औद्योगिक अतिकृष्णा का उदाहरण निम्न में से किस जन्तु में देखा गया?

अ. सिल्क मॉथ

ब. मधुमक्खी

स. पेपर्ड मॉथ

द. ड्रॉसोफिला

उत्तर— स


सिकल सेल एनिमिया रोग में—


अ. लाल रक्त कणिकाएं गोलाकार हो जाती हैं।

ब. लाल रक्त कणिकाएं हंसिए के आकार की हो जाती हैं।

स. रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ जाती है।

द. लाल रक्त कणिकाएं हंसिए की आकार की हो जाती हैं तथा उनकी संख्या में अत्यधिक कमी आती है।

उत्तर— द


सिकल सेल एनिमिया रोग का फैलाव है—

अ. यूरोप महाद्वीप में 

ब. उत्तरी एवं दक्षिण अमेरिका में

स. अफ्रीका में

द. सम्पूर्ण संसार में

उत्तर— स


लेमार्कवाद आधारित है—

अ. उत्परिवर्तन

ब. उपार्जित लक्षण 

स. जीवन संघर्ष

द. पुनरावर्तन

उत्तर— ब


डार्विन द्वारा लिखित पुस्तक ' ओरिजिन आॅफ स्पीशीज' कब प्रकाशित हुई थी?

अ. 1859 ई. में

ब. 1809 ई. में

स. 1857 ई. में

द. 1869 ई. में

उत्तर— अ


प्राकृतिक वरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया था—

अ. लेमार्क 

ब. डार्विन 

स. वेलेस 

द. विजमान

उत्तर— ब


लेमार्क का ​जैव विकास का सिद्धांत कहलाता है—

अ. प्राकृतिक वरण 

ब. उपार्जित लक्षणों की वंशागति

स. व्यक्ति विकास जाति विकास को दोहराता है।

द. कृत्रिम वरण।

उत्तर— ब


प्राकृतिक चयन का वास्तविक अर्थ है- (पी.एम.टी. 2003)

अ. अनुपयुक्त का लोप 

ब. योग्यता की उत्तरजीविता

स. भेदकर प्रजनन

द. जीवन संघर्ष

उत्तर- ब


आधुनिक संश्लेषणात्मक सिद्धान्त के अनुसार जैव विकास निर्भर करता है-

अ. उत्परिवर्तन एवं प्राकृतिक चयन पर

ब. उत्परिवर्तन, जननिक अलगाव एवं प्राकृतिक चयन पर

स. जीन पुर्नमिश्रण एवं प्राकृतिक चयन पर

द. उपरोक्त सभी कारकों पर

उत्तर- द


कुछ जीवाणु स्ट्रेप्टोमाइसिन युक्त माध्यम में पनपने में समर्थ होते हैं, इसका कारण हैं-

(सी.बी.एस.ई. 2002)

(अ) प्राकृतिक चयन (ब) प्रेरित उत्परिवर्तन

(स) जननात्मक पृथक्करण (द) आनुवंशिक विचलन

उत्तर- अ


कार्बनिक विकास हेतु डार्विन और वैलेस ने निम्न में से कौनसा क्रम प्रतिपादित किया था-

(सी.बी.एस.ई. 2003)

अ. अति उत्पादन समष्टि के आकार में स्थिरता, विभिन्नताएँ, प्राकृतिक वरण

ब. विभिन्नताएं, प्राकृतिक वरण, अति उत्पादन, समष्टि के आकार में स्थिरता

स. अति उत्पादन, विभिन्नताएँ, समष्टि के आकार में स्थिरता, प्राकृतिक वरण

द. विभिन्नताएं, समष्टि के आकार में स्थिरता, अति उत्पादन, प्राकृतिक वरण

उत्तर- द


डार्विन ने प्रकृतिवरणवाद सिद्धान्त में कार्बनिक विकास के संदर्भ में निम्न में से किसकी भूमिका पर विश्वास नहीं किया था-

(सी.बी.एस.ई. 2003)

अ. जीवन संघर्ष

ब. विच्छिन्न विभिन्नताएँ

स. परजीवी एवं परभक्षी को प्राकृतिक शत्रु के रूप में

द. योग्यतम की उत्तरजीविता

उत्तर- स


पौधों में विविधिकरण हुआ- (सी.बी.एस.ई. 2004)

अ. लम्बे समय तक जैव विकासीय परिवर्तनों के कारण

ब. आकस्मिक उत्परिवर्तन के कारण

स. पृथ्वी पर अचानक

द. बीज प्रकीर्णन के द्वारा

उत्तर- अ


निम्न में से कौन-सी घटना जैव-विकास में डार्विन के सिद्धान्त का समर्थन करती है-

अ. ट्रान्सजेनिक जन्तुओं का विकास

ब. क्लोनिंग द्वारा डॉली नामक भेड़ का उत्पादन

स. पीड़कनाशी प्रतिरोधक कीटों की प्रचुरता

द. स्टेम कोशिकाओं से अंग प्रत्यर्पण हेतु अंगों का विकास

उत्तर- स

Tags: Science
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