कृषि साख: अल्पकालिक, दीर्घ कालिक ऋण

कृषि साख: अल्पकालिक, दीर्घ कालिक ऋण

भारत में हरित क्रांति



  • हरित क्रांति की शुरुआत 1965-66 में हुई।
  • इसका श्रेय नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग को तथा डॉक्टर एम एस स्वामीनाथन को दिया जाता है।
  • हरित क्रांति को एक पैकेज कार्यक्रम की रूप में शुरू किया गया। मैक्सिको से लाए गए गेहूं के उन्नत बीजों से भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने संकरण (Breeding) द्वारा अधिक उपज देने वाली प्रजातियां विकसित की।


इस प्रकार की अधिक उपज देने वाली किस्मों का कार्यक्रम (High Yielding Varities Seed Programme) इसका महत्वपूर्ण भाग था।
इसके अलावा रासायनिक उर्वरकों तथा नवीन तकनीक का प्रयोग भी महत्वपूर्ण उपांग थे।
इसके अंतर्गत चुने हुए 7 जिलों में 1960-61 से 'गहन कृषि जिला कार्यक्रम', 1964-65 से 'गहन कृषि क्षेत्रीय कार्यक्रम' तथा बहुफसली कार्यक्रमों की शुरुआत की गई।

हरित क्रांति का अध्ययन दो चरणों में किया जाता है।

1. प्रथम चरण 1966 से 1980-81:

इस चरण में गेहूं, चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा तक ही HYVS कार्यक्रम को सीमित रखा गया। इस चरण में गेहूं के उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई, परंतु अन्य फसलों का उत्पादन आशानुरूप नहीं हुआ। दालों की उत्पादकता में कमी आई।

2. द्वितीय चरण 1980-81 से 1996-97:

इस चरण में चावल और तिलहन पर विशेष ध्यान दिया गया। यही कारण है कि चावल और तिलहन के उत्पादन में वृद्धि दर क्रमशः 3.35% तथा 5.81% थी। मोटे अनाजों में ज्वार को छोड़कर अन्य में पर्याप्त बढ़ोतरी देखी गई।

कृषि साख


भारतीय कृषकों की साख संबंधी आवश्यकताओं को निम्न तीन प्रकार के ऋणों द्वारा पूरा किया जाता है:
1. अल्पकालिक ऋण:
15 माह की अवधि से कम अवधि के लिए दिया जाने वाला ऋण।
2. मध्यकालीन ऋण:
15 माह की अवधि से 5 वर्ष की अवधि के लिए दिया जाने वाला ऋण।
3. दीर्घ कालिक ऋण:
5 वर्ष से अधिक समय अवधि के लिए दिया जाने वाला ऋण।

कृषि वित्त के स्रोत

कृषि वित्त के स्रोतों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है:
1. गैर संस्थागत स्रोत
इसके अंतर्गत महाजन, साहूकार, रिश्तेदार, व्यापारी और जमींदार आते हैं।
2. संस्थागत स्रोत
इसके अंतर्गत सहकारी समितियां व बैंक, व्यापारिक बैंक और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक आते हैं।

कृषि कीमत नीति

कृषि कीमतों में तेज वृद्धि एवं अधिक उतार-चढ़ाव को रोकने के लिए 1965 में 'कृषि कीमत आयोग' का गठन किया गया। वर्ष 1985 में इसका नाम बदलकर कर  'कृषि लागत और कीमत आयोग' कर दिया गया। यह आयोग प्रतिवर्ष कृषि के प्रोत्साहन के लिए तीन कीमतों की घोषणा करता है।

1. न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price):
यह कीमत किसानों को यह गारंटी देती है कि यदि अत्यधिक उत्पादन हुआ तो भी सरकार कीमतों को इसके नीचे नहीं गिरने देगी। इसकी घोषणा फसल बोने से पूर्व की जाती है।

2. वसूली कीमत (Procurement Price)
वसूली कीमतें वे कीमतें हैं जिन पर सरकार आम वर्षों में अन्य व्यापारियों की तरह मंडियों से खाद्यान्न खरीदती है। इस खरीददारी की जरूरत सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए और बफर स्टॉक के रखरखाव के लिए होती है।
ज्ञातव्य है कि वसूली कीमत, न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक होती है।

3. जारी कीमतें (Issue Price)
इस कीमत पर उचित दर की दुकानों के माध्यम से सरकार उपभोक्ताओं को खाद्यान्न देती है।

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