प्रतिवादी धर्मसुधार आन्दोलन


प्रतिरोधी सुधार आंदोलन

  • प्रोटेस्टेंटवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होकर कैथोलिक चर्च ने भी अपनी व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास किया। इसे ही प्रतिरोधी सुधार आंदोलन कहा जाता है। इसे ‘कैथोलिक प्रतिक्रिया’ भी कहा जाता है। 
  • पोप पॉल तृतीय (1534-1549) के समय से पोप अधिक योग्य होने लगे तथा चर्च के पदों पर भी चरित्रवान व्यक्तियों की नियुक्तियां की जाने लगीं। इससे प्रतिरोधी सुधार आंदोलन को बल मिला। 
  • 16वीं शताब्दी के धर्मसुधार आन्दोलन तथा प्रोटेस्टेण्टों की सफलता ने यह स्पष्ट कर दिया कि अपने स्थायीत्व के लिए रोमन कैथोलिक चर्च में भी सुधार आवश्यक हैं। अतः अपनी सुरक्षा की दृष्टि से कैथोलिक मतावलम्बियों ने भी सुधार आन्दोलन को सूत्रपात किया, जिसे प्रतिवादी या प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन कहा गया है।
  • इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य चर्च के संगठन एवं कार्यविधि संबंध सिद्धान्तों में परिवर्तन लाना, धर्म सिद्धान्तों की व्याख्या और धर्मप्रचार का कार्य करना था इसके विविध उपाय काम में लाये गये-

क. ट्रेण्ट कौन्सिल 1545-64

  • इटली के ट्रेण्ट नामक स्थान पर 1545 ई. में चर्च की एक परिषद् बुलाई गई, इसकी बैठकें समय-समय पर 18 वर्षो तक होती रही। परिषद् में अनेक कैथोलिक विद्वानों ने भाग लिया तथा चर्च में सुधार लाने के लिए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए।
  • 1. भविष्य में चर्च का कोई पद किसी को नही बेचना।
  • 2. सभी बिशपों को अपने कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करना होगा।
  • 3. पादरियों को प्रशिक्षित किया जायेगा।
  • 4. जहां आवश्यक हो जन भाषा में उपदेश देना।
  • 5. पादरियों को कठोर एवं सादा जीवन बिताना होगा।
  • 6. कैथोलिका चर्चो में पूजा की एक सी विधि व एक सी प्रार्थना पुस्तक रखी गई।
  • 7. पोप कैथोलिक चर्च का प्रधान हैं और सभी सिद्धान्तों का अन्तिम व्याख्याता है।
  • 8. पाप-मोचन पत्रों की बिक्री बंद करने का निश्चय किया गया।
  • ट्रेण्ट की परिषद की मुख्य सफलता कैथोलिक चर्च के सिद्धान्तों की स्पष्ट परिभाषा थी इसमें कैथोलिक चर्च को सुदृढ़ एवं निश्चित स्थिति प्रदान की। लैटिन भाषा के साथ-साथ देशी भाषाओं के व्यवहार की भी अनुमति दी गई। यही कारण है कि ट्रेण्ट की परिषद का कैथोलिक चर्च के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थापना है।
  • कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आगे भी अपना-अपना प्रभाव बढ़ाते रहे। इसके परिणामस्वरूप यूरोप में तीसवर्षीय युद्ध 1618-48 के मध्य हुआ। इसका केंद्र जर्मनी था। 
  • 1648 ई. में वेस्टफालिया की संधि के द्वारा अंततः यह युद्ध समाप्त हुआ। 
  • समझौते के अनुसार, उत्तरी जर्मनी ने प्रोटेस्टेंट और दक्षिणी ने कैथोलिक धर्म को अपना लिया। 

ख. जैसुइट संघ ‘सोसायटी ऑफ जीसस’


  • स्पेन में कैथोलिक धर्म की जड़ें गहराई से जमी थीं, अतः प्रतिरोधी सुधार आंदोलन का केंद्र वही बना।
  • सेना से अवकाश प्राप्त एक स्पेनी सैनिक इगनाशियस लोयोला (1491-1556) ने इसे आरंभ किया। सैनिक सेवा से मुक्त होकर उसने अपना ध्यान अध्ययन में लगाया। उसने अनेक संतों की जीवनियां पढ़ीं। इससे धर्म के प्रति उसका दृष्टिकोण बदल गया। स्पेन से वह पेरिस चला गया और धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया।
  • उसने वर्ष 1534 में धर्म के प्रचार के लिए सोयायटी ऑफ जीसस नामक संस्था की स्थापना की। इसके अनुयायी जेसुइट कहलााए।
  • अपनी पुस्तक ‘स्पिरिट्यूअल एक्सरसाइजेज’ में लोयोला ने अपने संगठन के नियम प्रतिपादित किए।
  • इस संस्था का पूरा संघटन सैनिक आधार पर था। इसके हर सदस्य को कठोर अनुशासन में रहना होता था तथा दीनता, पवित्रता, आज्ञा पालन और पोप के प्रति समर्पण की शपथ लेनी पडती थी।
  • जेसुइट पोप के एक प्रकार से सैनिक बन गए और कैथोलिक धर्म और पोप की सत्ता का प्रसार करने लगे। इस प्रक्रिया में उनका प्रोटेस्टेंटों से संघर्ष भी हुआ। जेसुइटों ने अपने चरित्र, आचरण और ज्ञान के द्वारा भी भी कैथोलिक संप्रदाय का प्रसार किया।
  • पोप को यूरोप में फिर से सम्मान दिलाने एवं स्थापित करने में जैसुइट संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • जैसुइट लोगों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विदेशों में धर्म प्रचार करना था।
  • ऐसे साहसी धर्मप्रचारकों में से ही जेक्युअस मार्क्वेते थे, जिन्होंने मिसीसिपी घाटी के उपरी भाग की खोज की थी और वहां के आदिवासियों को ईसाई बनाया था।
  • अपने प्रचार कार्य के सिलसिले में इस संघटन ने स्कूलों, चिकित्सा तथा सेवा केन्द्रों की स्थापना के माध्यम से मानवता का भी काम किया।

ग. इन्क्वीजिशन


  • प्रोटेस्टेण्ट धर्म की प्रगति को अवरूद्ध करने के लिए जो संस्था सबसे शक्तिशाली व प्रभावपूर्ण सिद्ध हुई, वह थी- इन्क्वीजिशन।
  • यह एक विशेष धार्मिक अदालत थी। सन् 1542 ई. में पोप पाल तृतीय ने रोम में इस संस्था को पुनर्जीवित किया, जो सर्वोच्च अधिकारों से युक्त थी। नास्तिक का पता लगाने, उनका कठोर दमन करने, कैथोलिक चर्च के आदेशों को बलपूर्वक लागू करने, धर्म विरोधियों व विद्रोहियों को कुचल देने, दूसरे देशों से भेजी हुई धर्म सम्बन्धी अपीले सुनने इत्यादि उद्देश्यों से सर्वोच्च धार्मिक न्यायालय की स्थापना की गई।
  • प्रोटेस्टेण्टों के विरूद्ध इस न्यायालय ने कठोर कदम उठाये।

प्रोटेस्टेंट आंदोलन का महत्त्व और प्रभाव

प्रोटेस्टेंट आंदोलन के व्यापक और दूरगामी प्रभाव निम्नलिखित प्रकार से पड़े-

  • प्रोटेस्टेंट आंदोलन से ईसाई धर्म स्पष्टतः दो शाखाओं - कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, में विभक्त हो गया।
  • प्रोटेस्टेंट धर्म के अंतर्गत भी अनेक संप्रदाय उभरकर सामने आए, जैसे- इंग्लैंड में ऐंग्लिकन।
  • सुधार आंदोलन ने कैथोलिक धर्म में भी सुधार को आवश्यक बना दिया और इस दिशा में प्रयास किए गए।


उलरिक ज्विंगली 1484-1531


  • कैथोलिक चर्च का विरोध करने वाला लूथर अकेला नही था। उसके समकालीन ज्विंगली ने भी, जो मूल रूप से एक जर्मन था, स्विट्जरलैण्ड के ज्युरिच नगर में, लूथर से प्रभावित होकर चर्च को चुनौती दे डाली।
  • ज्विंगली लूथर से अधिक उग्र विचारवाला था।
  • उसने चर्च में व्याप्त अंधविश्वासों एवं पादरियों के भ्रष्ट जीवन की कटु आलोचना की। वह धार्मिक आडंबरों का विरोधी था। वह चर्च में संतो, मूर्तियों, सुगंधित पदार्थो और मोमबत्तियों को जलाने का विरोधी था। उसने भव्य और गौरवपूर्ण चर्च भवन के स्थान पर सादा चर्च की स्थापना एवं सादे ढंग से प्रार्थना करने पर बल दिया। वह बाइबिल को धर्म का एकमात्र स्रोत मानता था।
  • वह पादरियों के कुंवारेपन का भी विरोधी था।
  • 1525 में उसने रोम से अलग होकर एक रिफॉर्म्ड चर्च की स्थापना कर ली।

  • लूथरवाद की आलोचना में ‘डिफेंस ऑफ सेवन सेक्रामेन्टस’ की रचना किसने की?
  • - हेनरी अष्टम् ने

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