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धुर्मसुधार आन्दोलन के कारण

byDivanshuGS -August 11, 2019
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धुर्मसुधार आन्दोलन के कारण

प्रोटेस्टेंट आंदोलन कोई अचानक से नहीं हुआ, बल्कि इसके कारण सदियों से उत्पन्न एकत्रित रूढ़ियां और कर्मकांड थे। इनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित थे- धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक।

धार्मिक कारण

कैथोलिक चर्च की प्रतिगामी नीतियां-

  • चर्च की नीतियां रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी थीं। वह पुरानी परंपराओं और मान्यताओं को बनाए रखना चाहता था। वह सुधार और प्रगति का विरोधी था। तर्क, ज्ञान-विज्ञान और बौद्धिक चिंतन का विकास वह नहीं चाहता था ताकि उसका प्रभाव बना रहे। पुनर्जागरण काल में जब नया चिंतन आरंभ हुआ तो चर्च की प्रतिक्रियावादी नीतियों पर प्रश्न उठने लगे।

पोप का विलासितापूर्ण जीवन-

  • रोमन चर्च का प्रधान पोप होता था। आरंभिक पोपों ने अपनी सच्चरित्रता और सादगीपूर्ण जीवन से ईसाई धर्म का प्रभाव बढ़ाया, परंतु बाद के अनेक पोप अयोग्य, पथभ्रष्ट और विलासी हो गए। उनके पास अपार संपत्ति जमा हो गई जिससे वे विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। इससे पोप के प्रति लोगों की श्रद्धा घटने लगी।

पादरियों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन-

  • पोप के समान पादरी भी भ्रष्ट हो गए थे। उनका चारित्रिक पतन हो गया था। चर्च और मठों में अनाचार पनपने लगा था। पादरी न तो शिक्षित और सुयोग्य होते थे, न ही वे लोगों को धर्म की सही शिक्षा देते थे। वे अंधविश्वासों को बनाए रखते थे। चर्चों और मठों में एकत्रित संपत्ति ने उनका जीवन विलासमय बना दिया। सादगी और पवित्रता का स्थान विलासिता एवं आडंबर ने ले लिया था। अतः उनके प्रति लोगों में आस्था कम होती चली गई।

पादरियों का अयोग्य होना-

  • ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ ही चर्चों और मठों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुईं। उनका प्रबंध देखने के लिए बड़ी संख्या में पादरी नियुक्त किए गए। इस प्रक्रिया में योग्यता को तिलांजलि दे दी गई। उनक लोगों को नियुक्त किया जाने लगा जिन्हें धर्म का ज्ञान ही नहीं था। पोप की कृपा पाकर कोई भी व्यक्ति पादरी नियुक्त हो सकता था। पोप अपने विश्वासपात्रों और सगे-संबंधियों को चर्च के उच्च पदों पर तथा पादरियों के रूप में नियुक्त करने लगा। कई लोग पोप को रिश्वत देकर भी चर्च के पद प्राप्त करते थे। इस कारण से लोगों में चर्च के प्रति विरोध उत्पन्न होने लगा।

चर्च की दोषपूर्ण शिक्षा नीति-

  • ईसाई जगत में शिक्षा का दायित्व चर्च का था। चर्च का शिक्षा पर नियंत्रण था। अतः, शिक्षा धर्म से प्रभावित थी। इस प्रकार की शिक्षा में तर्क, ज्ञान-विज्ञान एवं नई चेतना के लिए कोई स्थान नहीं था। इससे भी असंतोष में वृद्धि हुई।

चर्च के अंदर असंतोष- 

  • रोमन चर्च ऊपर से एकात्मक था, परंतु इसमें व्याप्त बुराइयों से पादरियों का ही एक वर्ग असंतुष्ट था। यह पोप और पादरियों के विलासी, भ्रष्ट जीवन तथा प्रतिगामी नीतियों का विरोधी था। यह वर्ग चिंतन-मनन को अधिक महत्त्व देता था तथा ईसाई धर्म की मूल पवित्रता और सादगी को बनाए रखने का प्रयासरत था। इससे चर्च के अंदर ही असंतोष उभरने लगा।

आर्थिक कारण

जनता पर आर्थिक बोझ-

  • चर्च यूरोप का सबसे बड़ा सामंत था। सामंती व्यवस्था के अनुरूप चर्च भी जनता का आर्थिक शोषण करता था। चर्च की संपत्ति तो राज्य द्वारा कर-मुक्त करार दी गई थी, परंतु चर्च स्वयं जनता से विभिन्न प्रकार के कर वसूल करता था। बपतिस्मा, विवाह और अन्य संस्कार करवाए जाने के लिए चर्च धन वसूलता था। साथ ही, वह जनता से उनकी आमदनी का ‘दशांश’ भी कर के रूप में वसूलता था। कर का बोझ समाज के तृतीय वर्ग पर ही था। अतः उनमें असंतोष बढ़ने लगा।

व्यापार एवं नगरीय जीवन का विरोध-

  • चर्च व्यापार और नगरीय व्यवस्था का विरोधी था। अर्थव्यवस्था में बदलाव आने एवं भौगोलिक खोजों और व्यापारिक मार्गों से व्यापार का विकास हो रहा था तथा नगरों का पुनरुत्थान हो रहा था, परंतु चर्च प्रतिगामी नीतियां अपना रहा था। चर्च सूद लेना-देना अधार्मिक कृत्य मानता था। इसी प्रकार नगरों का वातावरण स्वच्छंद रहने के कारण चर्च नगरीय जीवन का भी विरोधी था। अतः व्यापारी और नगरीय वर्ग चर्च का विरोधी बन गया।

पापमोचन-पत्रों की बिक्री-

  • चर्च की जिन आर्थिक नीतियों ने लोगों को सबसे अधिक उद्वेलित किया वह था पापमोचन-पत्रों अथवा मुक्ति-पत्रों (indulgences) को बेचने की व्यवस्था। इसके अनुसार कोई भी पाप करनेवाला व्यक्ति इन मुक्ति-पत्रों को खरीदकर अपने पापों से छुटकारा पा सकता था। कभी ये मुक्ति-पत्र स्वेच्छा से खरीदे जाते थे तो बहुधा इन्हें खरीदने के लिए दबाव डाला जाता था। इस प्रकार से अर्जित धन जनहित के कार्यों अथवा चर्च की व्यवस्था पर खर्च नहीं कर पोप और पादरियों के भोग-विलास पर खर्च किया जाता था। इससे भी लोगों में असंतोष उत्पन्न हुआ।

राजनीतिक कारण

चर्च और राज्य में संघर्ष-

  • तत्कालीन व्यवस्था के अनुरूप राजा राजनीतिक जीवन का और पोप धार्मिक जीवन का प्रधान था। पोप से मान्यता प्राप्तकर ही कोई भी राजा शासक बनता था। धीरे-धीरे राजा पोप की नियुक्ति में दखल देने लगे। इससे राज्य और चर्च का संबंध कटु हो गया। दोनों अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करने लगे। पोप ग्रेगोरी ने तो सम्राट हेनरी चतुर्थ को धर्म से बहिष्कृत ही कर दिया।  इससे पोप और रोमन चर्च का प्रभाव बढ़ने लगा। शक्तिशाली राजा पोप के वर्चस्व को चुनौती देने का प्रयास करने लगे।

चर्च का राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप-

  • चर्च और राज्य के बीच मनमुटाव का एक कारण यह भी था कि चर्च राज्यों के आंतरिक मामलों में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करता रहता था। विरोध करने पर राजा को धर्म बहिष्कृत ही कर दिया जाता था। इससे चर्च राज्यों में अलोकप्रिय होता गया। राजा और चर्च के बीच मतभेद का एक कारण धार्मिक न्यायालय भी थे। 
  • चर्च का अपना न्यायालय था। इसमें अनेकों बार निर्दोष लोगों को सजा दी जाती थी तथा वैसे राजद्रोहियों को मुक्त कर दिया जाता था जिन पर देशद्रोह के गंभीर आरोप लगे हुए हो। यह राजशक्ति की सीमाओं का उलंघन था। चर्च की संपत्ति भी विवाद का एक कारण बनी। चर्च के पास बेशुमार चल-अचल संपत्ति थी जिसे इस पर कर नहीं देना पड़ता था। दूसरी ओर राजा अपने सैनिक और प्रशाकीय खर्चों के लिए चर्च की संपत्ति पर कर लगाना चाहते थे। चर्च ऐसा होने नहीं देना चाहता था। इससे दोनों के बीच टकराव बढ़ने लगा।

राष्ट्रीय राज्यों का उत्कर्ष-

  • 16वीं शताब्दी में राष्ट्रीयता की भावना के विकास के साथ ही यूरोप में शक्तिशाली राष्ट्रीय राज्यों का उदय और विकास हुआ। ये राज्य पहले से अधिक शक्तिशाली थे। अपनी सेना के बल पर वे एक प्रकार से निरंकुश शासक बन गए। ये राज्य के मामलों में रोम के पोप के हस्तक्षेप के विरोधी थे। साथ ही प्रतिवर्ष रोम को भेजे जाने वाले धन को राष्ट्रीय धन का गलत निष्कासन मानकर इसे रोकने का प्रयास किया गया। राज्य स्वयं ही चर्च की संपत्ति अपने नियंत्रण में लेकर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था। फलतः धर्मसुधार के पूर्व राज्य और चर्च के बीच संबंध कटुतापूर्ण बन गए।

बौद्धिक कारण


  • धर्मसुधार आंदोलन का एक प्रमुख कारण पुनर्जारण काल का बौद्धिक विकास था। पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप मानवतावादी विचारधारा का उदय और विकास हुआ। इसने चर्च के भी अनेक सदस्यों को आकृष्ट किया। इन लोगों ने ईसाई धर्म की सरलता और सादगी को बनाए रखने एवं धार्मिक आडंबरों को त्यागने का आह्वान किया। मानव को वे मुक्त और विवेकपूर्ण मानते थे। वे एक दूरवर्ती ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि यद्यपि ईश्वर ने मानव को बनाया था तथापि उसे अपना जीवन इच्छानुसार व्यतीत करने का पूरा अधिकार है। वे पारलौकिक जीवन को सुखमय बनाने की अपेक्षा भौतिकवादी सिद्धांतों में विश्वास रखते थे तथा वर्तमान जीवन को ही सुखी-संपन्न एवं शांतिपूर्ण बनाना चाहते थे। छापाखाना के आविष्कार और बड़ी संख्या में पुस्तकों के प्रकाशन से मानवतावादी विचारधारा का तेजी से प्रसार होने लगा। 
  • विश्वविद्यालय इस नई चेतना के केंद्र बन गए। 
  • बाइबिल के प्रकाशन से लोगों ने ईसाई धर्म की मूल बातों को समझ लिया। लोगों ने यह भी देखा कि कैसे चर्च ने बाइबिल के सिद्धांतों के विपरीत लोगों को मूर्ख और अज्ञानी बना रखा था। 
  • मानवतावादी विचारधारा से ओतप्रोत पुस्तकें प्रकाशित हुईं। 
  • चर्च की व्यवस्था और उसकी भूमिका को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। 
  • टॉमस मूर और इरैस्मस ने अपनी रचनाओं द्वारा चर्च पर प्रहार किया। टॉमस मूर ने यूटोपिया में चर्च के बंधनों से मुक्त एक आदर्श समाज की कल्पना की।
  • इरैस्मस ने अपनी पुस्तक ‘इन दि प्रेज ऑफ फॉली’ में चर्च में व्याप्त कुरीतियों की कटु आलोचना की। 
  • इस सबके परिणामस्वरूप लोगों का चर्च के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा। इसने प्रोटेस्टेंट आंदोलन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 

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मार्टिन लूथर का धर्म सुधार आंदोलन

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