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दादाभाई नौरोजी: पहले भारतीय जिन्होंने धन निष्कासन पर चिंता व्यक्त की

ग्रांड ओल्ड मैन ऑफ़ इंडिया

जन्मः 4 सितम्बर, 1825 ई. को
स्थानः गुजराज के नवसारी में पारसी परिवार में
प्रारम्भिक जीवन में कठिनाइयां-
जब वे 4 वर्ष के थे, तब उनके पिता का निधन हो गया, इससे इनके परिवार चलने का भार मां पर आ गया। उनकी मां ने गरीबी में भी अपने बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई। वे पहले भारतीय थे जिन्हें एलफिंस्टन कॉलेज में बतौर प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति मिली। बाद में यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में उन्होंने प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाए दीं।
 
dadabhai nauroji


  • नौरोजी वर्ष 1892 में हुए ब्रिटेन के आम चुनावों में 'लिबरल पार्टी' के टिकट पर 'फिन्सबरी सेंट्रल' से जीतकर भारतीय मूल के पहले 'ब्रितानी सांसद' बने थे।
  • उन्होंने कांग्रेस के पूर्ववर्ती संगठन 'ईस्ट इंडिया एसोसिएशन' के गठन किया।
  • 1886 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उस वक्त उन्होंने कांग्रेस की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई।
  • उन्होंने वर्ष 1855 तक बम्बई में गणित और दर्शन के प्रोफेसर के रूप में काम किया।
  • वर्ष 1859 में उन्होंने ’नौरोजी एण्ड कम्पनी’ के नाम से कपास का व्यापार शुरू किया। कांग्रेस के गठन से पहले वह सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी द्वारा स्थापित 'इंडियन नेशनल एसोसिएशन' के सदस्य भी रहे।
  • उन्होंने 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 'कलकत्ता अधिवेशन' की अध्यक्षता की। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पॉवर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ थी जिसे 'राष्ट्रीय आंदोलन की बाइबिल' कहा जाता है।
  • उन्होंने प्रसिद्ध साप्ताहिक अखबार 'राफ्त गोफ़्तार' का संपादन किया।
  • उनका कहना था कि, ‘हम समाज की सहायता से आगे बढ़ते हैं, इसीलिए हमें भी पूरे मन से समाज की सेवा करनी चाहिए।’

  • दादाभाई नौरोजी ने ’ज्ञान प्रसारक मण्डली’ नामक एक महिला हाई स्कूल एवं 1852 में ’बम्बई एसोसिएशन’ की स्थापना की। लन्दन में रहते हुए दादाभाई ने 1866 ई. मे ’लन्दन इण्डियन एसोसिएशन’ एवं ’ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ की स्थापना की। वे राजनीतिक विचारों से काफ़ी उदार थे। ब्रिटिश शासन को वे भारतीयों के लिए दैवी वरदान मानते थे। 1906 ई. में उनकी अध्यक्षता में प्रथम बार कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में स्वराज्य की मांग की गयी। दादाभाई ने कहा “हम दया की भीख नहीं मांगते। हम केवल न्याय चाहते हैं। ब्रिटिश नागरिक के समान अधिकारों का ज़िक्र नहीं करते, हम स्वशासन चाहते है।“ अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने भारतीय जनता के तीन मौलिक अधिकारों का वर्णन किया है। ये अधिकार थे-
  1. लोक सेवाओं में भारतीय जनता की अधिक नियुक्ति।
  2. विधानसभाओं में भारतीयों का अधिक प्रतिनिधित्व।
  3. भारत एवं इंग्लैण्ड में उचित आर्थिक सबन्ध की स्थापना।

  • 1868 ई. में सर्वप्रथम दादाभाई नौरोजी ने ही अंग्रेज़ों द्वारा भारत के ’धन की निकासी’ की ओर सभी भारतीयों का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने 2 मई, 1867 ई. को लंदन में आयोजित ’ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ की बैठक में अपने पत्र, जिसका शीर्षक 'England Debut To Indiaको पढ़ते हुए पहली बार धन के बहिर्गमन के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।
  • उन्होंने कहा- “भारत का धन ही भारत से बाहर जाता है, और फिर धन भारत को पुनः ऋण के रूप में दिया जाता है, जिसके लिए उसे और धन ब्याज के रूप से चुकाना पड़ता है। यह सब एक दुश्चक्र था, जिसे तोड़ना कठिन था।“
  • उन्होंने अपनी पुस्तक *Poority And Unbritish Rules In Indiaमें प्रति व्यक्ति वार्षिक आय का अनुमान 20 रुपये लगाया था। इसके अतिरिक्त उनकी अन्य पुस्तकें, जिसमें उन्होंने धन के निष्कासन सिद्धान्त की व्याख्या की है, 'द वान्ट्स एण्ड मीन्स ऑफ़ इण्डिया (1870 ई.)', 'आन दि कामर्स ऑफ़ इण्डिया (1871 ई.)' आदि हैं।
  • दादाभाई नौरोजी 'धन के बहिर्गमन के सिद्धान्त' के सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रखर प्रतिपादक थे। 1905 ई. में उन्होंने कहा था कि 'धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण।' दादाभाई नौरोजी ने धन निष्कासन को 'अनिष्टों का अनिष्ट' की संज्ञा दी है।
  • धन-निष्कासन (Drain of Wealth) को दादा भाई नौरोजी ने इसे ‘अंग्रेजों द्वारा भारत का रक्त चूसने’ की संज्ञा दी।
  • महादेव गोविन्द रानाडे ने कहा है, “राष्ट्रीय पूँजी का एक तिहाई हिस्सा किसी न किसी रूप में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत से बाहर ले जाया जाता है।“
  • दादाभाई कितने प्रखर देशभक्त थे, इसका परिचय 1906 ई. की कोलकाता कांग्रेस में मिला। यहाँ उन्होंने पहली बार स्वराज शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने कहा, हम कोई कृपा की भीख नहीं माँग रहे हैं। हमें तो न्याय चाहिए।

निधन

92 वर्ष की उम्र में 30 जून 1917 को मुम्बई भारत में ही उनका देहान्त हुआ। 

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