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आमेर का कछवाहा वंश

byDivanshuGS -September 17, 2017
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आमेर कछवाह

  • आमेर राज्य की स्थापना 1137 ई. में दूल्हेराय ने की थी। ये नरवर, मध्य प्रदेश के राजपूत कच्छवाह थे।
  • इन्होंने आमेर के मीणाओं पर हमला किया साथ ही दौसा जीता।
  • जमवारामगढ़ दूसरी राजधानी बनाई।
  • 1207 ई. में कोकिल देव 'दूल्हेराय के पौत्र' ने आमेर जीतकर इसे राजधानी बनाया।
  • बाद में सवाई जयसिंह ने जयपुर बसाया व इसे नई राजधानी बनाया।
  • कछवाहों की प्रथम व प्रारम्भिक राजधानी दौसा, द्वितीय राजधानी जमवारामगढ़, तीसरी राजधानी आमेर तथा चौथी राजधानी जयपुर थी।
  • दूल्हेराय ने रामगढ़ में अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनाया।
  • पंचमदेव को पृथ्वीराज चौहान का समकालीन सामन्त माना है, जो पृथ्वीराज का महोबा युद्ध में सहयोगी था और तराइन के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • पृथ्वीराज मेवाड के महाराणा सांगा का सामन्त था जो खानवा के युद्ध में सांगा की तरफ से लड़ा था।
  • पृथ्वीराज गलता के रामानुज सम्प्रदाय के संत कृष्णनदास पयहारी के अनुयायी थे। इन्हीं के पुत्र सांगा ने सांगानेर कस्बा बसाया।
  • पृथ्वीराज- पत्नी बालाबाई ' बीकानेर के लूणकरण की पुत्री' तीन पुत्र- भीमदेव, सांगा पूर्णमल

'अमरी-उल-उमरा' राजा भारमल (1547-73 ई.)

  • 20 जनवरी, 1562 ई. को बादशाह अजमेर की तीर्थयात्रा पर ढूंढाड़ के मार्ग से निकला तो भारमल ने सांगानेर में, उसके समर्थक चकताइ खां की सहायता से अकबर से भेंट की और मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।
  • अकबर ने 1562 को भारमल की ज्येष्ठ राजकुमारी हरकाबाई से सांभर में विवाह कर लिया। जो 'मरियम-उज्जमानी' के नाम से विख्यात थी।
  • भारमल को 5000 जात और 5000 सबार का मनसब प्रदान किया गया। उसे 'अमीर-उल-उमरा' राजा की उपाधि से सम्मानित किया गया।

राजा भगवन्तदास (1573-89 ई.)

  • सात वर्ष '1582-89' तक पंजाब का सूबेदार रहा।
  • पांच हजारी मनसब से सम्मानित और उसकी मृत्यु लाहौर में 1589 ई. में हुई थी।

 'फर्जन्द' राजा मानसिंह (1589-1614 ई.)

  • अकबरनामा के अनुसार कुंवर मानसिंह अपनी 12 वर्ष की अवस्था से ही अर्थात् 1562 ई. से मुगल सेवा में प्रविष्ट हो गया था।
  • रणथम्भौर के 1569 ई. के आक्रमण के समय मानसिंह अकबर के साथ थे। सरनाल के युद्ध में उसने विशेष ख्याति अर्जित की थी।
  • अप्रैल 1573 में डूंगरपुर के शासक आसकरण को परास्त किया। यहां से कुंवर उदयपुर गया और राणाप्रताप से भेंट की।
  • 1576 ई. में अकबर ने उसे दुबारा 5000 सैनिकों को देकर मेवाड भेजा। 
  • - काबुल की सूबेदारी 1585 ई. में मिली।
  • अकबर ने मानसिंह को 1580 ई. में उत्तर-पश्चिमी सीमान्त भागों एवं सिंध प्रदेश की सुव्यवस्था के लिए नियुक्त किया।
  • 1581 ई. में मानसिंह ने काबुल के हाकिम मिर्जा को परास्त किया तो 1585 में मानसिंह ने काबुल की विजय की।
  • अकबर ने उसका मनसब 5000 जात, सवार कर दिया।
  • बिहार की सूबेदारी
  • काबुल से बिहार 1589
  • बंगाल की सूबेदारी 1594ई.
  • मानसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर 1594 ई. में सम्राट ने उसे बंगाल का सूबेदार बनाया।
  • सबसे पहले उसने सूबे की राजधानी टाण्डा से बदल कर राजमहल कर दी।
  • उसने पूर्वी बंगाल के विद्रोहियों को, जिनमें ईसा खां, सुलेमान और केदार राय मुख्य थे, दबाया।
  • 1596 ई. में उसने कूचबिहार के राजा लक्ष्मीनारायण के राज्य को मुगल सत्ता के प्रभाव क्षेत्र में सम्मिलित किया। उससे संधि कर उसकी बहन अबलादेवी से विवाह किया।
  • यही उसके पुत्र दुर्जनसिंह और हिम्मतसिंह की मृत्यु हो गई।
  • वह स्वयं 1596 ई. में बीमार हो गया थाअतः उसने अजमेर रहकर बंगाल सूबे की व्यवस्था देखते रहने का निश्चय किया।
  • मानसिंह ने बंगाल की देखरेख के लिए अपने पुत्र जगतसिंह को नियुक्त करवाया, लेकिन 1599 ई. में उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई।
  • 1614 ई. में उसकी मृत्यु इलचीपुर में हो गयी।
  • सम्राट के समय में 7000 का मनसब तथा 'फर्जन्द' का पद प्राप्त करना एक गौरव की बात थी।

बंगाल में भू-राजस्व व्यवस्था

  •  उसने अकबर नगर की, जो पीछे राजमहल कहलाया, की स्थापना की।
  • मुकन्दराम
  • सहयोगी- मुहम्मद शरीफ व रायजादा।

धर्म

  • उसने अकबर के आग्रह पर दीन-ए-इलाही की सदस्यता स्वीकार न की।
  • मुंगेर के शाह दौलत नामी संत के कहने पर भी इस्लाम धर्म स्वीकार न किया।
  • बैकुंठपुर में, जो पटना जिले में है, मानसिंह ने एक भवानी शंकर का मंदिर बनवाया और उसमें विष्णु, गणेश तथा मातृदेवी की मूर्तियों की स्थापना की।
  • गया में उसने महादेव का और आमेर में 1602 में शिलादेवी का मंदिर बनवाया। वृंदावन में गोविंद देव का मंदिर का निर्माण करवाया।
  • आमेर के जगत शिरोमणि के मंदिर में स्थापित कृष्ण-राधा की मूर्तियां भी इसी सम्प्रदाय से संबंधित है।  पूर्णतया हिंदू शैली की है।

विद्यानुरागीः 
  • वह न केवल युद्ध नीति, रण-कौशल तथा शासन कार्य में ही कुशल था वरन् संस्कृत भाषा में उसकी रूचि थी।
  • आमेर का स्तम्भ-लेख, रोहतासगढ़ का शिलालेख और वृन्दावन का अभिलेख उसके संस्कृत भाषा के प्रतिप्रेम के द्योतक है।
  • रायमुरारी दास मानसिंह का कवि, इसने 'मानप्रकाशचरित्र' की रचना की जिसमें कानसिंह की उपलब्धियों का वर्णन है।
  • जगन्नाथ ने ,मानसिंह कीर्ति मुक्तावली' की रचना की।
  • मानसिंह के भाई माधोसिंह के आश्रय में पुण्डरीक विट्टाल ने 'रागचन्द्रोदय', रागमंजरी, नर्तन निर्णय तथा ‘दूनी प्रकाश और दपतराज ने पत्र प्रशस्ति तथा पवन पश्चिम की रचना की थी।
  • हरिनाथ, सुन्दरदास
  • दादूदयाल ने 'वाणी' की रचना की।

स्थापत्य कला 

  • आमेर के ‘जगतशिरोमणिजी‘ का मंदिर तथा तोरणद्वार की तक्षणकला अपने ढंग की अनूठी है। इस मंदिर का निर्माण रानाी कंकावतीजी ने अपने प्रिय पुत्र जगतसिंह की स्मृति में करवाया था।
  • वृन्दावन का 'गोविन्दजी मंदि'
  • अकबर नगर 'बंगाल' और मानपुर 'बिहार' नगरों की स्थापना की।

मिर्जा राजा जयसिंह

  • भावसिंह एवं रानी दमयंती का पुत्र।
  • उसने तीन मुगल सम्राटों- जहांगीर, शाहजहां, और औरंगजेब की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ।
  • मुगल सम्राट जहांगीर ने जयसिंह को तीन हजार जात व 1500 सवारों का मनसबदार बनाकर सम्मानित किया। सर्वप्रथम उसकी नियुक्ति 1623 ई. में मलिक अम्बर के विरूद्ध, जो अहमदनगर के राज्य की रक्षा मुगलों के विरूद्ध कर रहा था, की गई।
  • शाहजहां के काल में 400 का मनसब मिला।
  • महावन के जाटों को दबाने के लिए भेजा।
  • 1630 ई. में 5000 का मनसब मिला। जयसिंह को शुजा के साथ कंधार भेजा गया।
  • जयसिंह को शाहजहां ने मिर्जा राजा की पदवी से 1638 ई. में विभूषित किया।
  • 1651 ई. में सादुल्लाखां के साथ कंधार के युद्ध में भेजा।
  • 6000 का जात व सवार का मनसब दिया।
  • औरंगजेब ने दारा का मुकाबला मार्च, 1658 में देवराय में किया जिसमें जयसिंह ने मुगल सेना के अग्रभाग का नेतृत्व किया।

पुरन्दर की संधि

  • 11 जून, 1665 ई. को शिवाजी और जयसिंह के बीच संधि हुई जिसे पुरन्दर की संधि कहते हैं। इस संधि के अनुसार यह निश्चय हुआ कि-
  1. 35 किलों में से 23 किले मुगलों को सुपुर्द कर दिये जाये। इस तरह 40 लाख की आमदनी का भाग शिवाजी से ले लिया गया।
  2. 12 छोटे दुर्ग शिवाजी के लिए रखे जाये।
  3. शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5 हजार का मनसबदार बनाया जाय और शिवाजी को दरबारी सेवा से मुक्त समझा जाय।
  4. जब कभी शिवाजी को मुगल सेवा के लिए निमन्त्रित किया जाय तो वह उपस्थिति हो।
  • 2 जुलाई, 1668 ई. को बुरहानपुर के पास मिर्जा राजा जयसिंह का देहावसान हो गया।

कला एवं साहित्य

  • उसके दरबार में हिन्दी का प्रसिद्ध कवि ‘बिहारीलाल’ था जिसने बिहारी सतसई की रचना द्वारा हिन्दी भाषा की अनुपम सेवा की। कुलपति मिश्र।
  • रामकवि ने जयसिंह चरित्र लिखी।
  • जयगढ का निर्माण करवाया, यहां तोप बनाने का कारखाना बनवाया।
‘चाणक्य’ सवाई जयसिंह द्वितीय
  • जन्मः 3 सितम्बर 1688 ई., 1700-43
  • बिशनसिंह का ज्येष्ठ पुत्र
  • औरंगजेब ने उसकी वीरता व वाक्पटुता देखकर उसे सवाई की उपाधि प्रदान की।
  • 2 जून 1707 ई. को जाजउ का युद्ध, जयसिंह ने आजम का पक्ष लिया।
  • बहादुरशाह ने जयसिंह को पदच्युत कर विजयसिंह को आमेर का शासक घोषित किया। आमेर का नाम मोमिनाबाद रखा गया और उसका फौजदार ‘सयैद हुसैन खां’ को बनाया गया।
  • आमेर को पुनः प्राप्त करने के लिए जयसिंह ने जोधपुर के शासक अजीतसिंह और मेवाड के महाराणा अमरसिंह द्वितीय को भी अपनी ओर मिला लिया।
  • महाराणा ने अपनी पुत्री चंद्रकुंवरी का विवाह
  • तीनों राज्यों की सेनाओं ने जुलाई, 1708 ई. में जोधपुर पर अधिकार कर लिया।
  • जयसिंह की सेवाएं उपलब्ध करने के लिए सम्राट ने 11 जून, 1710 ई. उसके पद को स्वीकार किया और उसे शाही खिलअत से सम्मानित किया।
  • जयसिंह ने चूडामन के भतीजे बदनसिंह को अपनी ओर मिला लिया।
  • मुहम्मदशाह ने जयसिंह को ‘राज-राजेश्वर श्री राजाधिराज सवाई’ की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया।
  • बदनसिंह, जिसने सवाई जयसिंह की जाटों को दबाने की सहायता की थी, जाटों का नेता स्वीकार किया और उसे ‘ब्रजराजा’ की पदवी दी गयी।

हुरडा सम्मेलन 17 जुलाई 1734 ई.

  • मराठा शक्ति पर अंकुश लगाने तथा राजपूताना पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह के सद्प्रयासों से 17 जुलाई 1734 ई. को हुरडा ‘भीलवाडा’ नामक स्थान पर राजपूताना के शासकों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया।
  • उसमें जयपुर के सवाई जयसिंह, बीकानेर के जोरावर सिंह, कोटा के दुर्जनसाल, जोधपुर के अभयसिंह, नागौर के बख्तसिंह ,बूंदी के दलेलसिंह, करौली के गोपालदास, किशनगढ का राजसिंह आदि।
  • हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की।
  • सम्मेलन में एक अहदनामा तैयार किया गया, जिसके अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे। एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा, कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नही देगा।
  • मराठों के विरूद्ध वर्षा ऋतु के बाद कार्यवाही आरम्भ की जायेगी जिसके लिए सभी शासक अपनी सेनाओं के साथ रामपुरा में एकत्रित होंगे और यदि कोई शासक किसी कारणवश उपस्थित होने में असमर्थ होगा तो वह अपने पुत्र अथवा भाई को भेजेगा।
  • हुरडा सम्मेलन में मराठों के कारण उत्पन्न स्थिति पर सभी शासकों द्वारा विचार-विमर्श करना और सामूहिक रूप से सर्वसम्मत निर्णय लेना, इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है।
  • खानवा युद्ध के बाद पहली बार राजस्थानी शासकों ने अपने शत्रु के विरूद्ध मोर्चा तैयार किया था। किन्तु यह राजस्थान का दुर्भाग्य ही था कि हुरडा सम्मेलन के निर्णय कार्यान्वित नहीं किये जा सके। क्योंकि इन राजपूत शासकों का इतना घोर नैतिक पतन हो चुका था और वे ऐश्वर्य विलास में इतने डूबे हुए थे कि अपने आपसी जातीय झगडों को भूलकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं लाभ को छोडना तथा उनके लिए असम्भव था।
  • इसके अतिरिक्त राजस्थान में प्रभावशाली और क्रियाशील नेतृत्व के अभाव में भी निर्णय कार्यान्वित नही हो सके।
  • यद्यपि महाराणा जगतसिंह न तो कुशल कुटनीतिज्ञ था और न योग्य सेनानायक।

धौलपुर समझौता- 1741

  • पेशवा बालाजी बाजीराव और सवाई जयसिंह की भेंट धौलपुर में हुई।
  • 18 मई 1741 ई. तक पेशवा धौलपुर में ही रहा और जयसिंह से समझौते की बातचीत की, जिसकी मुख्य शर्ते इस प्रकार थी-
  1. पेशवा को मालवा की सूबेदारी दे दी जायेगी, किन्तु पेशवा को यह वादा करना होगा कि मराठा मुगल क्षेत्रों में उपद्रव नही करेंगे।
  2. पेशवा, 500 सैनिक बादशाह की सेवा में रखेगा और आवश्यकता पडने पर पेशवा 4000 सवार और बादशाह की सहायतार्थ भेजेगा, जिसका खर्च मुगल सरकार देगी।
  3. पेशवा को चम्बल के पूर्व व दक्षिण के जमींदारों से नजराना व पेशकश लेने का अधिकार होगा।
  4. पेशवा बादशाह को एक पत्र लिखेगा जिसमें बादशाह के प्रति वफादारी और मुगल सेवा स्वीकार करने का उल्लेख होगा।
  5. सिन्धिया और होल्कर भी यह लिखकर देंगे कि यदि पेशवा, बादशाह के प्रति वफादारी से विमुख हो जाता है तो वे पेशवा का साथ छोड देंगे।
  6. भविष्य में मराठे, बादशाह से धन की कोई नयी मांग नही करेंगे।
  7. 4 जुलाई 1741 ई. को बादशाह

बूंदी के उत्तराधिकार में हस्तक्षेप एवं मराठा प्रवेश

  • बूंदी के आन्तरिक झगडें में जब जयसिंह ने बूंदी के राव बुद्धसिंह को पदच्युत कर दिया, तब बुद्धसिंह की रानी ने जयपुर के विरूद्ध मराठों को अपनी सहायता के लिए आमन्त्रित किया।
  • फलस्वरूप राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रथम प्रवेश हुआ। इसके बाद तो राजपूत षासक मराठों से सैनिक सहायता प्राप्त करने को लालायित हो उठें।
  • मृत्युः 21 सितम्बर 1743 को मृत्यु।

खगोल विद्या

  • संस्कृत और फारसी का विद्वान होने के साथ-साथ वह गणित और ज्योतिष का भी असाधारण पण्डित था।
  • खगोल गुरू सम्राट जगन्नाथ से सीखा था। इन्होंने टॉलेमी की ‘अलमूजेस्ट’ के अरबी अनुवाद के आधार पर ‘सिद्धांत-कौस्तूभ’ तथा ‘सम्राट सिद्धांत’ की रचना की और यूक्लिड के रेखा गणित का अरबी से संस्कृत में अनुवाद किया।
  • सवाई जयसिंह ने 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनवायी और उसका नाम तत्कालीन मुगल सम्राट मुहम्मदशाह के नाम से ‘जीजमुहम्मदशाही’ (मुहम्मदशाह की एस्ट्रोनोमिकल टेबल) रखा। यह 1733 ई. में प्रकाशित हुई।
  • जयसिंह ने ‘जयसिंहकारिका’ नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की।
  • भारतीय सिद्धांत- ज्योतिश विशेषज्ञ गुजरात का केवलराम था, जो 1725 ई. में जयसिंह के दरबार में आया।
  • केवलराम ज्योतिषी ने लागोरिथम का फ्रेंच से संस्कृत में अनुवाद किया, जिसकों ‘विभाग सारणी’ कहा जाता है।
  • मिथ्या जीवछाया साखी, दुकपक्ष सारणी, दुकपक्ष ग्रंथ तारा सारणी, जय विनोद सारणी, जयविनो, रामविनोद, ब्रह्मप्रकाश, निरस आदि मुख्य है।
  • पुर्तगाली राजा एमानुएल के दरबार में दूत भेजा।
  • जयसिंह के ग्रंथों में जिन विदेशी खगोल-विद्या विशेषज्ञों का उल्लेख मिलता है। उनमें - युक्लिड, हिप्पारकस, टॉलेमी, डी.लाहेरे, अब्दुर रहमान इब्न उमर अब्दुल हुसैन अल सूफी नासिर अल दुई, अततूसी, ऊलूग बेग, मौलाना चांद आदि।
  • 1719 में फ्लेमस्टीड की मृत्यु हुई जो ग्रीनविच के प्रथम एस्ट्रोनोमर रॉयल नियुक्त किया गया था। उसकी ‘हिस्टोरिका कोइलेस्टिस ब्रिटेनिका’ जो प्रकाशित भी नही हुई थी, की प्रति जयसिंह ने अपने यहां मंगवा ली।
  • उसने जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, बनारस और मथुरा में बडी-बडी वेधशालाओं को बनवाया और बडे-बडे यन्त्रों को बनवाकर नक्षत्रादि की गति को सही तौर से जानने के साधन उपलब्ध किये।
  • जयपुर की वेधशाला देश की सबसे बडी वेधशाला है जिसका निर्माण जयसिंह ने 1728 में करवाया था। इसे जन्तर-मन्तर कहते है।
  • जन्तर का तात्पर्य हैं उपकरण तथा मंत्र से तात्पर्य हो गणना अर्थात् उपकरणों के माध्यम से गणना करना।
  • इस जन्तर-मन्तर में संसार की सबसे बडी सूर्य घडी सम्राट यंत्र है।
  • जुलाई, 2010 में इसे यूनेस्कों की विश्व धरोहर सूची में सम्मिलित कर लिया है।

साहित्य

  • सवाई जयसिंह के समय में साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई साहित्यकारों के लिए ‘ब्रह्मपुरी’ की स्थापना की।
  • जयसिंह के पिता विशनसिंह ने तेलंगाना के शिवानन्द गोस्वामी को सम्मानित किया था।
  • शिवानन्द गोस्वामी के छोटे भाई जनार्दन भट्ट गोस्वामी द्वारा ‘श्रृंगारशतक’ ,वैराग्यशतक, मंत्र चंद्रिका, ललिताची प्रदीपका’ की रचना की।
  • शिवानन्द के दूसरे भाई चक्रपाणी तंत्र शास्त्र के प्रसिद्ध पंडित थे। पंचायत प्रकाश।
  • रत्नाकर भट्ट पौण्डरिक - जयसिंह कल्पद्रुम, उनके पुत्र सुधाकर पौण्डरिक ने साहित्य सार संग्रह तथा भतीजा ब्रजनाथ भट्ट ने ब्रह्म सूत्राणु भाष्यपृति (मारीचिका), पद्यतरंगिणी।
  • जयसिंह के समय में सबसे प्रसिद्ध विद्वानों में ‘कवि कलानिधि’ श्री कृष्ण भट्ट थे।
  • इनके द्वारा राम क्रीडाओं पर ‘राघवगीतम’ (रामरासा) पर जयसिंह ने इन्हें ‘रामरसाचार्य’ की उपाधि दी। अन्य ग्रंथ- पद्य मुक्तावली, वृत मुक्तावली, ईश्वरविलास महाकाव्य,



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