प्रकृति की गोद में


मानव  है अवसरवादी,
प्रकृति का दोहनकर्त्ता,
पर भूल जाता क्यूं,
पतित-हीन करता क्यूं?
जिसने जन्मा, पाला-पोषा नर को,
आज अस्तित्व उसका,
नर के कृत्यों से खतरे में,
आक्षेप नहीं नर पर,
पर भोक्ता है प्रकृति का,
उस पर बहते जल स्रोतों का,
हरित खाद्यान्न, सूखे मेवों का,
भूगर्भ में छिपे खनिज और
मैदानों पर उगती हरियाली का,
दुधारू पशु और सभ्यता वाहक बैल,
घोड़ा, ऊंट और गधे का,
हर उस वस्तु का उपयोगकर्त्ता,
जो नर जीवन का वाहक,
ऐसे में क्यूं उपेक्षित कर
एक भौतिकता का साम्राज्य बना
नर - नर को ही उपेक्षित कर,
सत है तकनीक के वशीभूत होने पर
नर रहा है सतत् विकास के भ्रम में,
नर के अस्तित्व की चिंता,
अस्तित्व प्रकृति का क्यूं चिंतनीय नहीं,

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