राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय

  • राजा राममोहन राय जन्म 22 मई 1772 ईस्वी को राधा नगर नामक बंगाल के एक गाँव में बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इन्हें भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है।
  • हिन्दू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण 1828 में उन्होंने 'ब्रह्म समाज' नामक एक नये प्रकार के समाज की स्थापना की। 1805 में राजा राममोहन राय बंगाल में अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में सम्मलित हुए और 1814 तक वे इसी कार्य में लगे रहे।
  • 17 वर्ष की अल्पायु में ही वे मूर्ति पूजा विरोधी हो गये थे। वे अंग्रेज़ी भाषा और सभ्यता से काफ़ी प्रभावित थे। उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की। धर्म और समाज सुधार उनका मुख्य लक्ष्य था।
  • वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे और सभी प्रकार के धार्मिक अंधविश्वास और कर्मकांडों के विरोधी थे। अपने विचारों को उन्होंने लेखों और पुस्तकों में प्रकाशित करवाया। उन्हें बंगाली, संस्कृत, अरबी तथा फ़ारसी का ज्ञान हो गया था। उन्होंने 1803-1814 तक ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए भी काम किया। उन्होने ब्रह्म समाज की स्थापना की तथा विदेश (इंग्लैण्ड तथा फ़्रांस) भ्रमण भी किया।
  •  भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा वे दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। राजा राममोहन राय ने उन्हें झकझोरने का काम किया। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया।
  • धर्म प्रचार के क्षेत्र में अलेक्जेंडर डफ्फ ने उनकी काफी सहायता की। द्वारका नाथ टैगोर उनके सबसे प्रमुख अनुयायी थे। आधुनिक भारत के निर्माता, सबसे बड़ी सामाजिक - धार्मिक सुधार आंदोलनों के संस्थापक, ब्रह्म समाज, राजा राम मोहन राय सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में हिन्दू धर्म के एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया, जिसमें द्वारकानाथ टैगोर शामिल थे। 1815 ई. में इन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की।
  • रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के विषय में कहा कि, ‘राजा राममोहन राय अपने समय में सम्पूर्ण मानव समाज में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह समझा।’ राजा राममोहन राय ने भारतीय स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया। 
  • 1821 ई. में स्पेनिश अमेरिका में क्रांति के सफल होने पर राजा जी ने एक सार्वजनिक भोज का आयोजन कर अपनी खुशी को व्यक्त किया। इन्हीं सब कारणों से राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व को एक 'अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व' माना जाता है।
  • सुभाषचन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि से सम्मानित किया था।
  • 20 अगस्त 1828 में उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। 1831 में एक विशेष कार्य के सम्बंध में दिल्ली के मुग़ल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड गये। वे उसी कार्य में व्यस्त थे कि ब्रिस्टल में 27 सितंबर , 1833 को उनका देहान्त हो गया। उन्हें मुग़ल सम्राट की ओर से 'राजा' की उपाधि दी गयी।
  • सन् 1821 ई. में ताराचंद्र दंत और भवानी चरण बंधोपाध्याय ने बंगाली भाषा में साप्ताहिक पत्र 'संवाद कौमुदी' निकाला, लेकिन दिसंबर 1821 ई. में भवानी चरण ने संपादक पद से त्याग पत्र दे दिया, तो उसका भार राजा राममोहन राय ने संभाला। 
  • अप्रैल 1822 ई. में राजा राममोहन राय ने फ़ारसी भाषा में एक साप्ताहिक अख़बार 'मिरात-उल-अख़बार' नाम से शुरू किया, जो भारत में पहला फ़ारसी अख़बार था। सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए अध्यादेश जारी किया, जिसके विरोध में राजा राममोहन राय ने 'मिरात-उल-अख़बार' का प्रकाशन बंद कर दिया।
  • राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी - सती प्रथा का निवारण। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंण्टिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके।

पत्रकारिता
  • राजा राममोहन राय ने 'ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन', 'संवाद कौमुदी', मिरात-उल-अखबार, बंगदूत जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। बंगदूत एक अनोखा पत्र था। इसमें बांग्ला, हिन्दी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था। उनके जुझारू और सशक्त व्यक्तित्व का इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि सन् 1821 में अँग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई। फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। इस बर्बरता के खिलाफ राय ने एक लेख लिखा।

ब्रह्मसमाज
  • राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज धीरे-धीरे कई शाखाओं में बँट गया। महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 'आदि ब्रह्म समाज', श्री केशवचन्द्रसेन ने 'भारतीय ब्रह्मसमाज' की और उनके पश्चात 'साधारण ब्रह्म समाज', की स्थापना हुई।
  • ब्रह्मसमाज के विचारों के समान ही डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग ने 1867 में महाराष्ट्र में 'प्रार्थना समाज' की स्थापना की जिसे आर. जी. भण्डारकर और महादेव गोविन्द रानाडे जैसे व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त हुआ।
आदि ब्रह्मसमाज का गठन
  • 1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने 'इण्डियन मिरर' नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र (मिरर) ने शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली और अंग्रेज़ी का पहला दैनिक समाचार होने का गौरव प्राप्त किया। बाद में इण्डियन मिरर ब्रह्मसमाज का मुख पत्र बन गया। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को एक अखिल भारतीय रूप देने के उद्देश्य से पूरे भारत का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में 'वेद समाज' तथा महाराष्ट्र में 'प्रार्थना समाज' की स्थापना हुई।
  • आचार्य केशवचन्द्र सेन ने महिलाओं के उद्धार, नारी शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह आदि के समर्थन में प्रचार किया तथा बाल विवाह का विरोध किया। इन अमूलकारी परिवर्तनवादी विचारों के कारण ही 1865 ई. में ब्रह्मसमाज में पहली फूट पड़ी। देवेन्द्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्मसमाज का गठन किया। आदि ब्रह्मसमाज का नारा था 'ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है।'
  • लन्दन की यात्रा से लौटने के बाद 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने सरकार को 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' को क़ानूनी दर्जा देने के लिए तैयार कर लिया। आचार्य केशव चन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों के उद्धार तथा स्त्री शिक्षा आदि के उद्देश्य से 'इण्डियन रिफ़ार्म एसोसिएशन' की स्थापना की। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने 'ब्रह्मविवाह अधिनियम' 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा से किया।
साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना
  • केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर 'साधारण ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना आनन्द मोहन बोस द्वारा तैयार की गई और इसके प्रथम अध्यक्ष भी थे। साधारण ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल, द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी प्रमुख थे।

मृत्यु

  • 27 सितम्बर, 1833 में इंग्लैंड में राजा राममोहन राय की मृत्यु हो गई।

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