सिद्ध साहित्य की विशेषताएं

sidhda sahitya ki visheshataen


सिद्ध साहित्य siddh saahitya-  

बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का का प्रचार करने के लिए सिद्धों ने अपने साहित्य को जन भाषा में जो साहित्य रचना की, वह हिन्दी का सिद्ध साहित्य माना जाता है। राहुल सांस्कृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सिद्ध सरहपा से सिद्ध साहित्य का आरंभ माना जाता है। सिद्धों में जिन्हें योगिनी भी कहा गया है, उनमें स्त्रियों की संख्या 4 हैं, जिनके नाम— मणिभद्रा, मेखलापा, कनखलापा और लक्ष्मीकरा हैं। इनमें सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा एवं कुक्करिपा हिन्दी के मुख्य सिद्ध कवि हैं।   

सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवि निम्नलिखित हैं - 

सरहपा Sarahapa- 

  • सरहपाद इस समय के सबसे प्रमुख सिद्ध माने जाते हैं, जिनका समय राहुल जी ने 769 ई. माना है, इस मत से अधिकांश विद्वान सहमत हैं। इनके द्वारा 32 ग्रंथों की रचना की गई है। ये ब्राह्मण जाति के थे। इसके द्वारा रचित दोहाकोष प्रसिद्ध रचना है। 
  • इन्होंने पाखण्ड और आडम्बरों का घोर विरोध किया तथा गुरु को सबसे पूज्य माना। इनका कहना है कि 'सहजभोग मार्ग जीव को महासुख की ओर ले जाता है।' इनकी भाषा सरल एवं गेय थी। इसलिए काव्यों में भावों का सहज प्रवाह मिलता है। दक्षिण मार्ग को छोड़कर वाममार्ग का उपदेश दिया। 
उदाहरण:-
नाद न बिन्दु न रवि न शशि मण्डल, 
चिअराअ सहाबे मूकल।।
अजुरे उजु छाड़ि मो लेहु रे बंक,
निअह बोहिया जाहु रे लांक।।
हाथेरे कांकांण मा लोउ दापण?
अपगे अपा बुझतु निअन्मण।।

  • कवि सरहपाद की इस भाषा से लगता है कि यह हिन्दी के निकट थी। इसमें अपभ्रंश का भी पूर्ण प्रभाव है। इनके काव्य में अन्तःसाधना पर जोर दिया गया। पण्डितों को फटकार एवं शास्त्रीय मार्ग का खण्डन किया।

पंडिअ सऊल सन्त बसखाणणई। देहहि बुद्ध बसन्त जाणई।।
अमणा गमन णतेनबि खंडिअ। तो विणिलज्ज हउं पंडिअ।।


शबरपा - 

  • शबरों का सा जीवन यापन करने के कारण इनका नाम शबरपा कहे जाने लगा। इनका जन्म 780 ई. में हुआ था। ये क्षत्रिय कुल के थे। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध रचना है। 
  • इन्होंने सहज जीवन पर बल देकर माया-मोह का विरोध किया।

हेरि ये मेरि तइला, वाडी खसमें समतुला।
पुकडए सेरे कपासु फुटिला।।
तइला बाड़िर पासेर जोहणा वाड़ी ताएला
फिटेलि अंधारि रे आकाश फुलिआ।।

लुइपा -

  • ये शबरपा के शिष्य थे। ये जाति से कायस्थ थे, किन्तु इनकी प्रबल साधना देखकर उड़ीसा के राजा तथा मंत्री इनके शिष्य बन गए। चौरासी सिद्धों में इनका ऊंचा स्थान है। इनकी कविता में रहस्य भावना की प्रधानता है। 

कौआ तरुवर पंच विडाल, चंचल चीए पइठो काल।
दिट करिअ महासुई परिमाण, लुई भरमई गुरु पुच्छि अजाण।।

डोम्भिपा- 

  • डोम्भिपा जाति के क्षत्रिय थे। इनका समय 840 ई. के लगभग माना गया है।
  • इनके गुरु का नाम विरूपा था। इनके प्रसिद्ध थ डोम्बि-गीतिका व योगचर्य  विशेष-प्रसिद्ध ग्रंथ है।
गंगा जउना माझेरे बहर नाइ।
तांहि बुडिली मातंगी पोइआली ले पार गई।।
सद्गुरू पाऊपए जाइव पुणु जिणउरा।

कण्हपा - 

  • कण्हपा ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनका समय 820 ई. माना जाता है। इनका जन्म
  • कर्नाटक में हुआ। किन्तु ये बिहार क्षेत्र के सोमपुरी रहते थे। इनके गुरु का नाम जालंधरपा था। इन्होंने रहस्यपरक बातों को बड़े दार्शनिक ढंग से प्रस्तुत किया तथा शास्त्रीय परम्परा एवं रूढ़ियों का खण्डन किया।

आगम बेअ पुराणे, पंडित मान बहंति।
पक्क सिरिफल अलिअ, जिमे वाहेरित भ्रंमयंति।।

कुक्कुरिपा - 

  • ये कपिलवस्तु के ब्राह्मण थे। चर्पटिया इनके गुरु थे। उन्होंने सोलह ग्रंथों की रचना की। ये सहज जीवन के समर्थक थे।
हांउ निवासी खमण भतारे।
मोहर विगोआ कहण न जाई।।
फेटलिउ गो माए अन्त उडि चाहि।
ज एथु बाहाम मो एथु नाहि।।

सिद्ध साहित्य की विशेषताएं एवं परवर्ती काव्य पर इनका प्रभाव -

1. सिद्धों की रचना से पता चलता है कि इनकी काव्य शैली संधा या उलटबासी शैली की
थी, जिसका सामान्य अर्थ से उलटा अर्थ लगता है।
2. अंतःसाधना पर जोर दिया गया।
3. रहस्यमार्गियों की साधना पद्धति अपनाई गई है।
4. वारुणी प्रेरित अंतःसाधना पर जोर दिया गया। लोक विरुद्ध एवं अडम्बारों का खण्डन किया।
5. उपदेशपरक साहित्यिक रचनाएं थीं।
6. प्रतीक मूलक एवं विरोध मूलक प्रतीकों से काव्य साधना की।

इस प्रकार सिध्द साहित्य न केवल महत्वपूर्ण रहा अपितु उसका प्रभाव परवर्ती भाषा साहित्य पर भी पड़ा। सिद्धाचार्यों के काव्य का सीधा प्रभाव सन्त साहित्य पर पड़ा। कर्मकाण्डों की निन्दा, आचरण की शुद्धता, संधा भाषा, उलटबासियां, रहस्यमयी उक्तियां, रूपक एवं प्रतीक विधान शब्दावली का प्रयोग हम भक्तिकाल के सन्त कबीर के साहित्य में देखते हैं। दोहा और गीत शैली भक्तिकाल की विशेषता बन गई। इसका प्रभाव नाथ साहित्य पर भी पड़ा, क्योंकि योग साधना सिद्धों की परम्परा लगती है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा ''भक्तिवाद पर सिद्धों का प्रभाव है। इनके साहित्य की सबसे बड़ी महत्वपूर्ण देन यह है कि आदिकाल की प्रामाणिक सामग्री प्राप्त हुई।''

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