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शक्ति Power

byDivanshuGS -August 08, 2020
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करिश्माई शक्ति



  • शक्ति (Power) राजनीति विज्ञान की मूल अवधारणा रही है क्योंकि राजनीति हमारे समाज का वह क्षेत्र है, जहां सभी के लिए नियम बनाए जाते हैं, सभी के लिए निर्णय लिए जाते हैं तथा अधिकारों एवं कर्तव्यों का आवंटन किया जाता है। इन सब कार्यों को करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है।
  • जहां प्राचीन समय में सैनिक शक्ति महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी, वहीं इस समय राजनीतिक शक्ति पर विशेष जोर दिया जाता है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मनु, कौटिल्य, शुक्र आदि ने शक्ति के विविध तत्वों पर प्रकाश डाला है, वहीं यूरोपीय चिन्तन में मेकियावली को प्रथम शक्तिवादी विचारक माना जाता है।
  • इंग्लैण्ड के टामस हॉब्स ने अपनी पुस्तक 'लेवियाथन' में 1651 ई. में राज्य और राजनीति के क्षेत्र में शक्ति के महत्त्व को रेखांकित किया।
  • आधुनिक राजनीति विज्ञान के प्रमुख प्रणेता चार्ल्स मेरियम ने शक्ति के विविध पक्षों की व्याख्या की। उसके बाद शक्ति की अवधारणा को स्पष्ट करने में कैटलिन, लासवेल, कैप्लान, मार्गेन्थाऊ आदि विद्वानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
  • कैटलिन ने “राजनीति विज्ञान को शक्ति के विज्ञान” के रूप में परिभाषित करते हुए कहा कि राजनीति प्रतियोगिता का ऐसा क्षेत्र है, जिसमें शक्ति प्राप्ति के लिए व्यक्तियों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है।
  • लासवेल की मान्यता है कि राजनीति विज्ञान का दायरा शक्ति से अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है। समाज में एक “प्रक्रिया या गतिविधि के रूप में शक्ति” कैसे क्रियाशील रहती है, हैराल्ड लासवेल के अनुसार यही राजनीति विज्ञान की मुख्य विषयवस्तु है। इसलिए लासवेल ने अपनी पुस्तक का नाम ही “कौन, कब, क्या, कैसे प्राप्त करता है (Politics: Who gets, what, when how)”।
  • मेकाइवर ने अपनी पुस्तक “द वैब ऑफ गवर्नमेण्ट” में शक्ति को परिभाषित करते हुए लिखा कि, “यह किसी भी संबंध के अन्तर्गत ऐसी क्षमता है, जिसमें दूसरों से कोई काम लिया जाता है या आज्ञापालन कराया जाता है।”
  • आर्गेन्सकी के शब्दों में “शक्ति दूसरे के आचरण को अपने लक्ष्यों के अनुसार प्रभावित करने की क्षमता है।”
  • राबर्ट बायर्सटेड के अनुसार, “शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है न कि उसका वास्तविक प्रयोग।”
  • शक्ति की परिभाषाएं यह संकेत देती है कि जिसके पास शक्ति है, वह दूसरों के कार्यों, व्यवहारों एवं विचारों को अपने अनुकूल बना सकता है।
  • वहीं दूसरी ओर समकालीन सामाजिक चिन्तन में शक्ति का अभिप्राय माना जाता है - कुछ करने की शक्ति अर्थात् जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने लिए अथवा समाज के लिए कुछ कार्य करता है तब वह इसी अर्थ में शक्ति का प्रयोग करता है।

 

शक्ति का बल और प्रभाव से भेद The Difference Between Power and Force 

  • सामान्यतः शक्ति और बल को एक ही माना जाता है, लेकिन वास्तव में दोनों में अन्तर है।
  • शक्ति प्रछन्न बल है और बल प्रकट शक्ति। शक्ति में बल और प्रभाव दोनों निहित होते है।
  • जब शक्ति व बल में अन्तर किया जाता है तो शक्ति अप्रकट होती है जबकि बल उसका प्रकट रूप है।
  • जब शक्ति व प्रभाव में अन्तर किया जाता है तो प्रभाव अप्रकट होता है तब शक्ति प्रकट होती है।
  • शक्ति अप्रकट तत्व है लेकिन बल प्रकट तत्व है, जैसे - पुलिस के पास अपराधी को दण्डित करने की शक्ति निहित रहती है लेकिन जब वह वास्तव में उसे दण्ड देती है जो कि आर्थिक दण्ड से शारीरिक दण्ड तक कुछ भी हो सकता है तब वह बल का प्रयोग करती है अथवा शिक्षक के पास विद्यार्थी को कक्षा से बाहर निकालने की शक्ति निहित रहती है और जब वह वास्तव में ऐसा करता है तब उसकी शक्ति बल में बदल जाती है।
  • इसी तरह शक्ति और प्रभाव में भी अनेक समानताएं और असमानताएं होती है।
  • दोनों ही एक-दूसरे को सबलता प्रदान करते हैं। दोनों ही औचित्यपूर्ण हो जाने के पश्चात् ही प्रभावशाली होते हैं प्रभाव शक्ति उत्पन्न करता है तथा शक्ति प्रभाव को।
  • लेकिन दोनों में अन्तर भी होता है। शक्ति दमनात्मक होती है और उसके पीछे कठोर भौतिक बल का प्रयोग होता है, जबकि प्रभाव मनोवैज्ञानिक होता है।
  • शक्ति का प्रयोग किसी के खिलाफ उसकी इच्छा के विरुद्ध भी हो सकता है लेकिन प्रभाव सम्बन्धात्मक होता है और इसकी सफलता का आधार प्रभावित व्यक्ति की सहमति पर निर्भर करता है।
  • शक्ति अप्रजातांत्रिक तत्व है जबकि प्रभाव पूर्णतया प्रजातांत्रिक है।
  • शक्ति कितनी भी अधिक हो उसे स्थिरता हेतु प्रभाव की आवश्यकता होती है लेकिन प्रभाव को अपने अस्तित्व के लिए शक्ति के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे अंग्रेज भारतीय जनता से शक्ति के माध्यम से अपने आदेशों की पालना करवाते थे जबकि महात्मा गाँधी प्रभाव का प्रयोग करते थे।

शक्ति के रूप

  • राजनीति विज्ञान में शक्ति का बहुत विस्तृत प्रयोग होता है, जिन्हें हम शक्ति के विविध आयाम कह सकते हैं। मुख्यतया तीन तरह की शक्ति राजनीतिक शक्ति, आर्थिक शक्ति और विचारधारात्मक शक्ति की पहचान कर सकते हैं।

1. राजनीतिक शक्ति

  • राजनीतिक शक्ति से तात्पर्य है समाज के मूल्यवान संसाधनों जैसे पद, प्रतिष्ठा, कर, पुरस्कार, दण्ड आदि का समाज के विभिन्न समूहों में आवंटन । सामान्यतः राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सरकार के विभिन्न अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका करते हैं, जिन्हें हम शक्ति के औपचारिक अंग कहते हैं। इनके अलावा विभिन्न दबाव समूह,
  • राजनीतिक दल और प्रभावशाली व्यक्ति भी सार्वजनिक नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। अतः इन्हें हम शक्ति के अनौपचारिक अंग कहते हैं।


2. आर्थिक शक्ति -

  • आर्थिक शक्ति का अर्थ है उत्पादन के साधनों एवं धन सम्पदा पर स्वामित्व। आर्थिक शक्ति अनेक तरह से राजनीतिक शक्ति को प्रभावित करती है। ऐसा माना जाता है कि जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली होते हैं वे राजनीतिक रूप से भी शक्तिशाली होते हैं लेकिन आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति के आपसी संबंध किस तरह के है, इसे लेकर उदारवाद और मार्क्सवाद में अन्तर है। उदारवाद के अनुसार राजनीतिक शक्ति को निर्धारित करने वाले समाज में अनेक तत्व होते हैं, जिनमें आपस में अन्तर्निभरता रहती है और अकेला आर्थिक तत्व ही राजनीति शक्ति को निर्धारित नहीं करता है।
  • दूसरी ओर मार्क्सवाद का मानना है कि सब तरह की शक्ति आर्थिक शक्ति की नींव पर टिकी होती है एवं आर्थिक शक्ति ही समाज में राजनीतिक शक्ति को निर्धारित करती है। यद्यपि पूर्व सोवियत संघ जैसे साम्यवादी राज्य में निजी सम्पत्ति और उत्पादन के निजी स्वामित्व पर रोक के बावजूद राजनीतिक रूप से ताकतवर एक नया वर्ग अस्तित्व में बना रहा, जिससे स्पष्ट है कि मार्क्सवाद की यह धारणा सत्य नहीं है।

3. विचारधारात्मक शक्ति

  • विचारधारा का अर्थ है विचारों का समूह जिसके आधार पर हमारे दृष्टिकोण का विकास होता है। यह लोगों के सोचने, समझने के ढ़ंग को प्रभावित करती है। यह विचारधारा किसी शासन व्यवस्था को लोगों की दृष्टि में उचित ठहराती है, इसलिए उसे वैधता प्रदान करती है। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्थाएं प्रचलित है और इन्हें उचित ठहराने के लिए उदारवाद, साम्यवाद, समाजवाद, एकात्म मानववाद इत्यादि विचारधाराओं का सहारा लिया जाता है। लेकिन कोई विचार किसी विशेष सामाजिक परिस्थिति में जन्म लेता है। कालान्तर में परिस्थिति बदल जाती है और तर्क दृष्टि से यह विचार पुराना पड़ जाता है। परन्तु कुछ लोग उस विचार को बनाए रखना चाहते हैं, क्योंकि उसके साथ उनके स्वार्थ जुड़े रहते हैं। यह वर्ग इसे बचाए रखने के लिए हिंसा का प्रयोग भी करते हैं। 
  • मार्क्सवाद साम्यवाद के नाम पर पूर्व सोवियत संघ, कंबोडिया आदि देशों में हजारों लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। माओवादी चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के नाम पर लाखों लोगों का सफाया कर दिया गया। भारत में माओवादी-नक्सलवादी इसी विचारधारा से प्रेरित होकर हिंसक कार्यवाही में संलग्न है। 
  • कई बार लोकतांत्रिक देशों में भी कुछ लोग अपनी विचारधारा के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए हिंसा की कार्यवाही में संलग्न हो जाते हैं, जैसे - भारत के केरल राज्य में मार्क्सवादी कार्यकर्ता अपने वैचारिक विरोधियों के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यवाहियों में संलग्न है।

 

शक्ति की संरचना

  • शक्ति की परम्परागत संकल्पना ऐसी क्षमता के रूप में की जाती है, जिससे एक पक्ष दूसरे पक्ष पर अपना नियंत्रण स्थापित करता है। ऐसे में क्या समाज में ऐसे समूहों की पहचान कर सकते हैं जो नियमित रूप से किन्हीं अन्य पर शक्ति का प्रयोग करते हो। इस बारे में मुख्यतः चार सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है।

वर्ग प्रभुत्व का सिद्धान्त - 

  • वर्ग प्रभुत्व का सिद्धान्त जो कि मार्क्सवाद की देन है, जिसकी मूल मान्यता है कि आर्थिक आधार पर समाज दो विरोधी वर्ग में बंटा होता है - आर्थिक रूप से ताकतवर बुर्जुआ वर्ग तथा आर्थिक रूप से दुर्बल - सर्वहारा वर्ग। 
  • इन दोनों विरोधी वर्गों के बीच समाज में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। अतः इनका मानना है कि “अब तक का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।” मार्क्सवाद के अनुसार प्रत्येक वर्गीय समाज मूलतः शक्ति-संरचना होता है, जिसमें प्रभु वर्ग, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज, नैतिकता एवं संस्कृति के हर स्तर पर ऐसा वर्चस्व कायम रहता है, जिसे पराधीन वर्ग अपनी ‘स्वाभाविक नियति’ के रूप में आत्मसात कर लेते हैं।

 

विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त - 

  • विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त के अनुसार भी समाज शक्ति के आधार पर दो वर्गों - विशिष्ट वर्ग जो शक्तिशाली है तथा सामान्य वर्ग जिसके ऊपर शक्ति प्रयुक्त होती है, में बंटा होता है। लेकिन इस सिद्धान्त के अनुसार यह वर्ग विभाजन केवल आर्थिक आधार पर नहीं होकर इसके अनेक आधार जैसे कुशलता, आनुवंशिकता, संगठन क्षमता, बुद्धिमता, प्रबन्ध क्षमता, नेतृत्व क्षमता आदि होते हैं इन योग्यताओं के आधार पर प्रत्येक देश और प्रत्येक प्रकार की शासन व्यवस्था में समाज का छोटा वर्ग उभरकर आता है जो शक्तिशाली होता है और सामान्यजन पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है। 
  • जैसे - देश के राजनेता, प्रशासक, उद्योगपति, वकील, प्रोफेसर, डॉक्टर आदि मिलकर एक वर्ग का निर्माण करते हैं, जो हमेशा शक्तिशाली बने रहते हैं, भले ही औपचारिक रूप से किसी भी दल की सरकार हो। इटली के विल्फ्रड परेटो (द माइण्ड एण्ड सोसायटी), गीतानो मोस्का (द रूलिंग क्लास), जर्मनी के राबर्ट मिशेल्स (पॉलिटिकल पार्टीज) नामक पुस्तकों में इस सिद्धान्त की व्याख्या की।

नारीवादी सिद्धान्त

  • नारीवादी सिद्धान्त का मानना है कि समाज में शक्ति के विभाजन का आधार लैंगिक है। समाज की सारी शक्ति पुरूष वर्ग के पास है जो महिलाओं के ऊपर अपनी शक्ति का प्रयोग करते हैं। अतः इस आधार पर यूरोप में नारी मुक्ति के आन्दोलन प्रारम्भ हुए जो पुरुषों के पितृसत्तात्मक प्रभुत्व का अन्त करना चाहते हैं।

 

बहुलवादी सिद्धान्त

  • शक्ति विभाजन का चौथा सिद्धान्त बहुलवादी सिद्धान्त है, जो उपर्युक्त तीनों से ही भिन्न है। वर्ग प्रभुत्व, विशिष्ट वर्गवाद एवं नारीवाद यह दावा करते हैं कि शक्ति का प्रयोग समाज को दो वर्गों - शक्तिशाली एवं शक्तिहीन में बांटता है, परन्तु बहुलवादी सिद्धान्त के अनुसार समाज में सारी शक्ति किसी एक वर्ग के हाथ में न होकर अनेक समूहों में बंटी होती है। 
  • उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में इन समूहों के बीच सतत् सौदेबाजी चलती रहती है। अतः शक्ति के आधार पर समाज में शोषणकारी व्यवस्था नहीं होती है। यह भारतीय अवधारणा है, जो शोषण अथवा वर्ग संघर्ष पर आधारित नहीं होकर उत्तरदायित्व आधारित है, जिसकी मान्यता है कि शक्तिशाली होने का अर्थ है सार्वजनिक हित के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग करना। इसमें शक्तिहीन को शक्तिसम्पन्न बनाकर समरस समाज की स्थापना पर जोर दिया गया है।

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