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गागरोण दुर्ग

byDivanshuGS -December 12, 2018
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  • 21 जून, 2013 को यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर सूची में शामिल किया। 
  • भारत का एकमात्र दुर्ग जो बिना किसी नींव के सीधा एक चट्टान पर स्थित है।
  • दक्षिण पूर्वी राजस्थान में स्थित गागरोण का किला अरावली पर्वतमाला की पहाड़ी पर कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम-स्थल पर स्थित है जो तीन तरफ से दोनों नदियों से घिरा होने के कारण जल दुर्ग की श्रेणी में आता है।
  • यह दुर्ग खींची चौहानों का प्रमुख स्थल रहा है जिसके साथ योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर की वीरगाथाएं जुड़ी हुई है।
  • यह एक ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक महत्त्व का स्थल है। 
  • यह दुर्ग पहले डोड (परमार) राजपूतों का अधिकार था, जिन्होंने इस दुर्ग का निर्माण करवाया । 
  • उनके नाम पर यह डोडगढ़ या धूलरगढ़ कहलाया।
  • बाद में इस दुर्ग पर खींची चौहानों का अधिकार हो गया।
  • 12वीं शताब्दी के लगभग गागरोण के खींची चौहानों का संस्थापक देवनसिंह (धारू) था, जिसने बीजलदेव नामक डोड (उसका बहनोई) शासक को मारकर धूलरगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा उसका नाम गागरोण रखा।
  • 1303 ई. में गागरोण के शासक जैतसिंह पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया। परन्तु जैतसिंह ने उसका सफलतापूर्वक मुकाबला किया।
  • उसके शासनकाल में खुरासान के प्रसिद्ध सूफी सन्त हमीदूद्दीन चिश्ती गागरोण आये जिनकी समाधि वहां पर बनी हुई है। ये सूफी सन्त ‘मिट्ठे साहब’ के नाम से प्रसिद्ध है।
  • इस वंश में पीपाराव नामक एक भक्तिपरायण राजा हुए। वे दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे। 
  • उन्होंने राजवैभव त्यागकर प्रसिद्ध संत रामानन्द का शिष्य बन गये। 
  • गागरोण दुर्ग के पार्श्व में कालीसिंध और आहू नदियों के संगम के समीप ही उनकी छतरी बनी हुई है जहां प्रतिवर्ष उनकी पुण्यतिथि पर मेला भरता है।
  • यहां का सर्वाधिक पराक्रमी शासक भोज का पुत्र अचलदास हुआ, जिसके शासनकाल में गागरोण का पहला साका हुआ।
  • ये मेवाड़ के महाराणा मोकल के दामाद (महाराणा कुंभा के बहनोई) थे। 
  • 1423 ई. में मांडू के सुल्तान अलपखां गौरी (होशंगशाह) ने गागरोण पर आक्रमण कर किले को घेर लिया।
  • अचलदास अपने योद्धाओं के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी रानियों व दुर्ग की महिलाओं ने जौहर कर लिया।
  • इस घटना का अचलदास के राज्याश्रित व समकालीन कवि शिवदास गाडण ने ‘अचलदास खींची री वचनिका’ में ओजस्वी वर्णन किया, जो डिंगल की आदि वचनिका होने के साथ ही इस युद्ध पर प्रकाश डालने वाली एकमात्र समसामयिक रचना है। 
  • पाल्हणसी ने अपने पैतृक राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अपने मामा राणा कुंभा की सैन्य सहायता से 1437 ई. में गागरोण के दुर्गाध्यक्ष दिलशाद को पराजित कर किले पर अधिकार कर लिया। 
  • कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में उल्लेख है कि महाराणा कुम्भा ने मांडू अभियान से वापस लौटते हुए कुए गागरोण को अपने अधिकार में कर अपने भानजे पाल्हणसी को सौंप दिया।
  • 1444 ई. में महमूद खलजी ने गागरोण पर आक्रमण किया, इस युद्ध में गागरोण का दूसरा साका हुआ।
  • इसका वर्णन मआसिरे महमूदशाही में मिलता है।
  • मआसिरे महमूदशाही के अनुसार ‘सुल्तान महमूद खलजी अपने अमीर उमरावों और 29 हाथियों सहित स्वयं कालीसिन्ध नदी के तट पर आया और दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। पाल्हणसी ने दुर्ग की रक्षा के पूरी तैयारी कर रखी थी। उसने मेवाड़ के महाराणा एवं मामा राणा कुम्भा से सैनिक सहायता मांगी, इस पर कुंभा ने धीरा (धीरजदेव) के नेतृत्व में एक सैन्य दल उसकी सहायता के लिए भेजा। 
  • युद्ध के सातवें दिन सेनापति धीरा अपने योद्धाओं के साथ वीरता पूर्वक लड़ते हुए मारा गया, जिससे पाल्हणसी की हिम्मत टूट गई। 
  • महमूद खलजी के सैनिकों ने दुर्ग में जल पहुंचाने के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। 
  • विजयी सुल्तान ने दुर्ग में एक ओर कोट का निर्माण करवाया तथा उसका नाम ‘मुस्तफाबाद’ रखा। 
  • कुछ समय बाद मेवाड़ के राणा सांगा ने अपना आधिपत्य स्थापित किया तथा उसे अपने विश्वासपात्र मेदिनीराय को सौंप दिया।
  • पृथ्वीराज राठौड़ ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘बेलिक्रिसन रूक्मणी री’ गागरोण में रहकर लिखा।
स्थापत्य कला -

  • यह दुर्ग ने केवल हाड़ौती अंचल में बल्कि पूरे राजस्थान में अपने स्थापत्य, निर्माण एवं गौरव के लिए प्रसिद्ध है। ये किला करीब 350 फीट लंबा है।
  • गागरोण दुर्ग की सबसे बड़ी विशेषता है -
  • इसकी नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था। यह ऊंची पर्वतमालाओं की अभेद्य दीवारों, सतत प्रवाहमान नदियों और सघन वन ने गागरोण को प्राकृतिक सुरक्षा कवच प्रदान किया।
  • तिहरे परकोटे से सुरक्षित गागरोण दुर्ग के प्रवेश द्वारों में सूरजपोल, भैरवपोल तथा गणेशपोल प्रमुख है।
  • इसकी विशाल सुदृढ़ बुर्जों में रामबुर्ज और ध्वजबुर्ज उल्लेखनीय हैं।
  • गीधकराई पहाड़ी-प्राचीन समय में विरोधी व षड्यंत्रकारियों को इस पहाड़ी से गिराकर सज़ा दी जाती थी।
  • प्राचीन काल में गागरोण के मुख्य प्रवेश द्वार पर लकड़ी का उठने वाला पुल बना था।
  • दुर्ग में विशाल जौहर कुण्ड तथा राजा अचलदास और उनकी रानियों के महल, नक्कारखाना, बारूदखाना, मधुसूदन, टकसाल और शीतलामाता के मन्दिर, सूफी संत मिट्ठे साहब की दरगाह तथा औरंगजेब द्वारा निर्मित बुलन्द दरवाजा प्रमुख है।
  • आहू और कालीसिन्ध नदियों का संगमस्थल स्थानीय भाषा में ‘सामेलजी’ के नाम से विख्यात है तथा पवित्र माना जाता है। इसके पास ही गागरोण के सन्त पीपाजी की छतरी है।
  • इस दुर्ग में कोटा रियासत के सिक्के ढ़ालने की टकसाल स्थापित की गयी थी।
  • दुर्ग के चारों ओर फैला आमझर वन अनेक प्रकार के पक्षियों के कलरव और मोरों की आवाज से गुंजित रहता है। वहां के पक्षियों में मनुष्य की आवाज की हूबहू नकल करने वाले गागरोण के राय तोते बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। 
प्रमुख साके
  • पहला साका - 1423 ई.
  • शासक - अचलदास खींची
  • आक्रांता - होशंगशाह (मालवा सुलतान)
  • इस युद्ध का वर्णन "अचलदास खींची री वचनिका"में मिलता है।
  • दूसरा साका - 1444 ई.
  • शासक - पालहंसि
  • आक्रांता - महमूद खलजी प्रथम (मालवा शासक)
  • इस युद्ध को जीतने के बाद गागरोण का नाम "मुस्तफाबाद" कर दिया था।
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