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स्व


स्व कौन ?
जीव सृष्टि में श्रेष्ठ कौन,
वही स्व है।
प्रकृति की श्रेष्ठ रचना का,
अकेला भोगी है धरा-प्रकृति का,
बौद्धिकता में,
श्रेष्ठ है अन्य जीव से।

वह स्व है प्रकृति में,
जीव सृष्टि में,
रंग-रूप से पृथक,
चाल-चलन द्विपदगामी।

वह स्व ही था जिसने,
बंधनहीन जीव सृष्टि को,
स्व बाहुबल से पराजित कर,
बंधन दिया नैतिक मर्यादाओं का,
जिसको नर धर्म मानता हैं।
वह स्व ही था जिसने,
स्वतंत्र आत्ममंथन से,
बौद्धिक बल की श्रेष्ठता से,
सिद्ध किया स्व अस्तित्व।

स्पष्ट वक्ता है वह बोली में,
भाषा से विभेदित अवश्य था,
पर प्रकृति रागों से,
एक-दूजे को समझा था।

स्व ने ही समाज बना,
सभ्यता का स्वांग रचा,
कोई संस्कारों से बंधा,
तो कोई प्रकृति बंधन से,
वह स्व ही था,
जो प्रकृति क्रिडांगन में,
पूरब से पश्चिम तक,
उत्तर से दक्षिण तक,
अपनी ही रचना में मौलिक,
कोई आर्य था,
तो कोई पारसी, यूनानी,
तो कोई मिश्री, तो कोई चीनी,
जो रचता था नदियों संग,
जीवन धारा का राग,
वह नगर रचना में,
प्रथम जीव था धरा का।... क्रमशः

कवि : राकेश सिंह राजपूत

जयपुर
यह कविता इस ब्लॉग के नाम के अनुरूप है। मुझे प्रकृति से जो अनुभूत होता है मैं वही लिखता हूँ। मैंने हर मानव को उस प्रकृति से ही प्रेरणा लेते देखा है। दोस्तों इस कविता का एक अंश आज छप रहा है। 

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