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संसदीय समितियां

लोक लेखा समिति -

भारतीय प्रजातंत्र में संसदीय समितियों का विशेष महत्त्व है। संसदीय जनतंत्र में कार्यपालिका के ऊपर विधायिका का नियंत्रण एक अनिवार्यता है। इसकी अनिवार्यता इस सिद्धांत से उभरती है कि संसदीय जनतंत्र में जनता सबसे ऊपर है और संसद जनता की इच्छाओं की छवि है। इसलिए संसद द्वारा बनाये गये कानून किस रूप में कार्यपालिका द्वारा लागू किये जा रहे हैं, उस पर नजर रखने की आवश्यक है। यह कार्य लोक लेखा समिति द्वारा किया जाता है।
इस समिति की शुरूआत 1929 में मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार की सिफारिशों के मुताबिक की गई थी। उस समय इसे ‘कमिटी ऑन पब्लिक अकाउंट्स’ कहा जाता था और कार्यकारी परिषद के वित्त सदस्य इसके अध्यक्ष होते थे। इस समिति के पहले अध्यक्ष श्री डब्ल्यू एम हैली थे।
यह समिति 1921 से लेकर 1949 तक वित्त मंत्रालय के अधीन रही थी। 26 जनवरी 1950 से यह समिति लोकसभा के अध्यक्ष के अधीन आ गई। इसका नाम लोक लेखा समिति हो गया।
इसके काम को लोकसभा के कार्य संचालन नियमावली के नियम 309(1) कर दिया गया।
लोक लेखा समिति में 22 से ज्यादा सदस्य नहीं हो सकते हैं और इनमें 15 सदस्य लोकसभा से और 7 सदस्य राज्यसभा से होते हैं और इसमें सभी दलों को दोनों सदनों में उनकी सदस्य संख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व दिया जाता है। 1954-55 तक इसमें सिर्फ लोकसभा के 15 सदस्य होते थे और उनका चुनाव हर साल किया जाता था। इसके बाद इसमें राज्यसभा से 7 सदस्यों को भी चुना जाने लगा।
1967 तक लोकसभा के अध्यक्ष सत्ताधारी दल के एक सदस्य को ही इसके अध्यक्ष या सभापति के रूप में नामजद करते थे। 1967 में पहली बार लोकसभा के अध्यक्ष ने विरोधी दल में से एक सदस्य को इसका अध्यक्ष नामजद किया। इस समिति का कोई सदस्य मंत्री नहीं बन सकता है और मंत्री बनने के बाद उसे समिति की सदस्यता छोडनी पड़ेगी। इसी तरह पहले से मंत्री पद पर आसीन कोई सदस्य इस समिति का सदस्य नहीं बन सकता और सदस्य बनता है तो मंत्री पद छोड़ना पड़ेगा।
लोकसभा के कार्य संचालन के नियम 308(प) के काम-काज का ब्यौरा दिया गया है, जो निम्न प्रकार से है-
1. संसद द्वारा अलग विभागों के लिए जितना धन दिया गया उसके खर्च का हिसाब-किताब करें।
2. सरकार के सालाना खर्च को देखना भी इसका एक काम है।
3. किसी भी सरकारी विभाग के किसी भी आर्थिक मामले को यह समिति अपनी इच्छा के मुताबिक देख सकती है। सरकार द्वारा लिये गये धन के हिसाब-किताब के मामले को देखने में या फिर भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के देखते समय समिति को निम्नलिखित बातों का सुनिश्चित करना पड़ता है-
जो धन सरकार द्वारा भारत की संचित निधि से लिया गया हो वह कानूनी रूप से काम के लिए ही हो और फिर उस धन को उसी काम के लिए खर्च भी किया गया हो।
जिस प्राधिकारी ने भी धन को खर्च किया हो, उसकी कार्य सीमा या उसके अधिकार क्षेत्र के भीतर ही वह धन हो।
अगर किसी काम के लिए दुबारा धन मांगा गया हो तो दुबारा मांगा गया धन उस प्राधिकारी की खातिर बनाये गये नियमों के अनुरूप हो।
इसके अलावा जिस किसी सरकारी या स्वायत्तशासी संस्था को सरकार द्वारा धन दिया जाता है और जिसके हिसाब-किताब की जांच नियंत्रक व महालेखा परीक्षक करता है, उन सबके वैधानिकता और सांवैधानिकता की जांच करना।

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