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न्यायिक पुनरावलोकन



क्या भारत में न्यायिक पुनरावलोकन और न्यायिक सक्रियता में विभेदन करना संभव है? क्या भारत की न्यायपालिका का हाल का व्यवहार न्यायिक सक्रियता का अधिक परिचायक है? 

न्यायिक पुनरावलोकन भारत में उच्चतम न्यायालय के पास एक ऐसी युक्ति के रूप में उपलब्ध है, जो कार्यपालिका एवं विधायिका के द्वारा शक्तियों के अतिक्रमण को रोक कर संविधान की रक्षा कर सकता है। यदि संघीय संसद या राज्य विधानमंडल मौलिक अधिकारों के विरूद्ध कानून का निर्माण करता है, तो संघीय संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि तथा संघीय या राज्य प्रशासन द्वारा किये गये प्रत्येक कार्य को सर्वोच्च न्यायालय अवैधानिक घोषित कर सकता है। अतः संविधान में न्यायपालिका को संविधान के विश्लेषण का अधिकार दिया गया है।
न्यायिक सक्रियता एक ऐसी अवधारणा है, जिसके अंतर्गत न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के आदेशों की असंवैधानिकता की जांच के लिए न्यायिक समीक्षा की अवधारणा का इस्तेमाल करती है। न्यायिक सक्रियता की परिघटना सरकार के दो अन्य अंगों अर्थात् विधायिका तथा कार्यपालिका की उदासीनता अथवा अति-सक्रियता का परिणाम है। न्यायमूर्ति पीएन भगवती और कृष्ण अय्यर ने न्यायिक सक्रियता की एक धारा की शुरुआत की थी।
न्यायपालिका की बढ़ती हुई सक्रियता से कार्यपालिका और विधायिका के साथ उसके टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है। झारखंड मामले में एनडीए की याचिका पर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के बाद विधायिका एवं न्यायपालिका के अपने कार्य क्षेत्रों को लेकर बहस छिड़ गयी है। न्यायपालिका ने कार्यपालिका के कार्य क्षेत्र में भी बढ़कर हस्तक्षेप किया है। इस संबंध में उसके द्वारा पर्यावरणीय मामलों में अपने निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित कराना, आपराधिक मामलों में जांच के विभिन्न निर्देश तथा विभिन्न प्रकार की नियुक्तियों मे उसके द्वारा हस्तक्षेप न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के पारस्परिक संतुलन को प्रभावित करते हैं। नीतिगत मामलों में भी न्यायपालिका की भूमिका का विस्तार हुआ है।

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