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चालुक्य राजवंश

chalukya rajvansh ka itihas


  • विन्ध्याचल के दक्षिण में तुंगभद्रा नदी के तट क विस्तृत प्रदेश को ‘दक्षिणापथ’ के नाम से जाना जात हैं और तुंगभद्रा से कन्याकुमारी तक का क्षेत्र ‘सुदूर दक्षिण’ के नाम से पुकारा जाता है।
  • मौर्यों के पतन के बाद आन्ध्र-सातवाहन वंश ने दक्षिणापथ पर शासन किया। उसके बाद वाकाटक वंश का शासन रहा।
  • चालुक्यों ने छठी शताब्दी ई. के मध्य से आठवीं शताब्दी ई. के मध्य तक यहां शासन किया।

चालुक्य इतिहास के स्रोत 

चालुक्य वंश की जिस शाखा का आधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल बादामी या वातापी होने के कारण उसे बादामी अथवा वातापी का चालुक्य कहा जाता है। इसी शाखा को ‘पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य’ भी कहा गया है।

  • उनका उदय स्थल वर्तमान कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में स्थित बादामी नामक स्थान था। यही से छठी शताब्दी में उन्होंने सम्पूर्ण दक्षिणापथ को राजनैतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया तथा उत्तर के हर्षवर्धन तथा दक्षिण के पल्लव शासकों के प्रबल विरोध क बावजूद उन्होंने लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण पर अपना आधिपत्य कायम रखा।

इतिहास के साधन 

  • बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास के प्रामाणिक साधन अभिलेख है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है।

ऐहोल:

  • शक संवत् 556 अर्थात 634 ई. की तिथि अंकित
  • यह लेख एक प्रशस्ति के रूप में
  • भाषाः संस्कृत 
  • लिपि दक्षिणी ब्राह्मी 
  • रचना रविकीर्ति ने की।
  • मुख्य रूप से पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन हुआ है।
  • इससे उसके पहलेका चालुक्य इतिहास तथा पुलकेशिन के समकालीन लाट, मालवा, गुर्जर आदि देशों के शासकों के विषय में ज्ञात करते है। 
  • हर्षवर्धन के साथ पुलकेशिन के युद्ध पर लेख प्रकाश डालता हैं। 
  • इसकी रचना कालिदास तथा भारवि की काव्य शैली पर की गयी है।

बादामी के शिलालेख

खोज 1941 ई. में
इसमें शक संवत् 465 अर्थात् 543 ई. की तिथि 
इसमें ‘वल्लभेश्वर’ नामक चालुक्य शासक का उल्लेख, जिसने बादामी के किलें का निर्माण करवाया था तथा अश्वमेध आदि यज्ञ किये थे। इसकी पहचान पुलकेशिन प्रथम से की जाती है।

महाकूट का लेख

  • बीजापुर जिले में 602 ई.
  • इसमें चालुक्यवंश की प्रशंसा की गई तथा उसके शासकों की बुद्धि, बल, साहस तथा दानशीलता का उल्लेख किया।
  • कीर्तिवर्मन प्रथम की विजयों का उल्लेख।

हैदराबाद दानपत्राभिलेख

  • शक संवत् 534 अर्थात् 612 ई.
  • पुलकेशिन द्वितीय ने युद्ध में सैंकडों योद्धाओं को जीता तथा ‘परमेश्वर’ की उपाधि ग्रहण की।
  • कर्नूल, तलमंचि, नौसारी, गढवाल, रायगढ, पटट्डकल आदि स्थानों से ताम्रपत्र एवं लेख प्राप्त। इनसे चालुक्यों का कांची के पल्लवों के साथ संघर्ष का उल्लेख है।

विदेशी विवरण

  • चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा ईरानी इतिहासकार ताबरी के विवरणों से भी चालुक्य वंश के इतिहास पर प्रकाश पडता है।
  • ह्वेनसांग ने पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति की प्रशंसा तथा उसके राज्य की जनता की दशा का वर्णन किया। 
  • ताबरी के विवरण से ईरानी शासक खुसरो द्वितीय तथा पुलकेशिन द्वितीय के बीच राजनयिक सम्बन्धों की सूचना मिलती है।

उत्पत्ति

  • विदेशियों की संतान
  • विन्सेन्ट स्मिथ उनकी उत्पत्ति मध्य एशिया की चपजाति से मानते है, जो गुर्जरों की एकशाला थी। 
  • कुछ उत्तरापथ की चुलिक जाति से जोडते है जो सोग्डियनों से संबंधित थी।
  • जॉन फ्लीट, बी.एन. राइस 
  • विदेशी मत मान्य नहीं
  • बादामी अभिलेख में इस वंश को हारिती पुत्र तथा मानवय गोत्रीय कहा गया है।
  • चालुक्य शासक अपने को चंद्रवंशी क्षत्रिय कहते है।
  • ह्वेनसांग ने पुलकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय बताया।
  • डी.सी. सरकार के अनुसार कन्नड कुल से संबंधित थे तथा इस वंश का संस्थापक चल्क ‘चलुक’ था। 
  • वराहमिहिर ‘बृहत्संहिता’ में इन्हें शूलिक जाति का माना।
  • नीलकण्ठ शास्त्री ने इस राजवंश का मूल नाम ‘चल्क्य’ था। फ्लीट
  • कदम्ब राजाओं की अधीनता में कार्य करते थे।
  • पृथ्वीराज रासो में अग्निकुण्ड से 
  • विल्हण कृत ‘विक्रमांकदेवचरित’ में ब्रह्मा की चुलूक से चालुक्यों की अनुश्रुतियों में उनका मूल निवास स्थान अयोध्या बताया गया है।

तीन प्रमुख शाखाएंः 

  1. बादामी के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य जिन्होंने लगभग 550 ई. से 750 ई.। राष्ट्रकूटों ने उनकी सत्ता का अन्त कर दिया।
  2. कल्याणी क उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य 950-1100 
  3. वेंगी के चालुक्य 600-1200 ई.

वातापी ‘बादामी’ का चालुक्य

  • जयसिंहः कैरा ताम्रपत्र
  • पुलकेशिन प्रथमः बादामी के चालुक्य वंश का वास्तविक संस्थापक 
  • महाकूट अभिलेख में उसके पूर्व दो शासकों - जयसिंह, रणराम
  • जगदेकमल्ल के दौलताबाद लेख- जयसिंह ने कदम्ब वंश के ऐश्वर्य का अन्त किया।
  • वातापी के चालुक्यों को सामन्त- स्थिति से स्वतंत्र स्थिति में लाने वाला पहला शासक पुलकेशिन प्रथम था, वह रणराग का पुत्र तथा उत्तराधिकारी हुआ।
  • उसने वातापी में एक सुदृढ दुर्ग का निर्माण करवाया तथा उसे अपनी राजधानी बनायी। 
  • उसने सत्याश्रय तथा रणविक्रम जैसी उपाधियां धारण की।
  • उसे श्री पृथ्वीवल्लभ अथवा श्रीवल्लभ भी कहा गया। उसने अश्वमेध, वाजपेय, हिरण्यगर्भ यज्ञ किये।
  • वह मनुस्मृति, इतिहास, पुराण, रामायण, महाभारत आदि का ज्ञाता था। तुलना ययाति, दिलीप से की।
  • महाकूटः तुलना विष्णु से, वृद्धों की राय माने वाला
  • विवाहः वटपुर परिवार की कन्या दुर्लभदेवी के साथ। 535-566 ई.

कीर्तिवर्मन प्रथम 566-97

  • पुलकेशिन के दो पुत्र- कीर्तिवर्मन प्रथम तथा मंगलेश।
  • उसने बनवासी के कदम्ब, कोंकण के मौर्य तथा वल्लरी- कर्नूल क्षेत्र के नलवंशी शासकों को पराजित कर उनके राज्य को अपने राज्य में मिलाया।
  • कीर्तिवर्मन ने सत्याश्रय, पृथ्वीवल्लभ आदि उपाधियां ग्रहण की तथा वैदिक यज्ञ किये। उसे ‘वातापी का प्रथम निर्माता’ भी कहा जाता है।
  • महाकूट स्तम्भ लेख में कीर्तिवर्मन प्रथम को बहुसुवर्ण अग्निष्टोम यज्ञ करने वाला कहा गया।

मंगलेश 597-610 ई.

  • पुलकेशिन द्वितीय के संरक्षक के रूप में
  • मंगलेश के नेनूर दानपत्र तथा महाकूट स्तम्भ लेख से पता चलता है कि उसने कलचुरि शासक बुद्धराज पर आक्रमण किया। 
  • वैष्णव धर्मानुयायी था तथा उसे ‘परमभागवत’ कहा गया।
  • रणविक्रांत, श्रीपृथ्वीवल्लभ उपाधि।
  • उसने बादामी के गुहा-मन्दिर का निर्माण पूरा करवाया जिसका प्रारम्भ किर्तिवर्मन के समय हुआ था इसमें भगवान विश्णु की प्रतिमा।
  • सहिष्णु था उसने मुकुटेश्वर के शैव मन्दिर को दान दिया।

पुलकेशिन द्वितीय 609-42 ई.

  • उसने ‘सत्याश्रय’, श्री पृथ्वी वल्लभ महाराज’ की उपाधि धारण की। उसने हर्ष को परास्त कर ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की। 
  • पल्लववंशी शासक नरसिंहवर्मन प्रथम ने पुलकेशिन द्वितीय को परास्त कर उसकी राजधानी बादामी पर अधिकार कर लिया था। इस विजय के बाद ही नरसिंह वर्मन ने ‘वातापीकोंड’ की उपाधि धारण की।
  • पुलकेशिन द्वितीय ने ‘दक्षिणापथेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। 
  • तबारी के अनुसार 625-26 ई. में पुलकेशिन द्वितीय ने ईरान के राजा खुसरों द्वितीय के दरबार में अपना दूतमण्डल भेजा था। 
  • विनयादित्य ने मालवों को जीतने के उपरान्त ‘सकलोत्तरपथनाथ’ की उपाधि धारण की।
  • विक्रमादित्य द्वितीय 733-45 ई. ने पल्लव नरेश नंदिवर्मन को पराजित किया। उसने कांची को बिना क्षति पहुंचाये वहां के राजसिंहेश्वर मंदिर को अधिक आकर्षक बनाने के लिए रत्नादि भेंट किया। उसने पल्लवों की वातापिकोंड की तरह ‘कांचिनकोंड’ की उपाधि धारण की।
  • इसके काल में दक्कन पर अरबों ने आक्रमण किया। इस आक्रमण का मुकाबला विक्रमादित्य के भतीजे पुलकेशी ने बडी कुशलता से किया। विक्रमादित्य ने उसे ‘अवनिजनाश्रय’ की उपाधि प्रदान की।
  • उसकी दूसरी पत्नी त्रैलोक्य महादेवी ने त्रैलोकेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था। प्रथम पत्नी लोकमहादेवी ने विशाल शिवमंदिर ‘विरूपाक्षमहादेव मंदिर’ का निर्माण किया जो विरूपाक्ष महादेव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
  • उसने वल्लभदुर्जेय, कांचियनकोंडु, महाराजाधिराज, श्रीपृथ्वी वल्लभ , परमेश्वर आदि उपाधियां धारण की।


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