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दान की सार्थकता


दान मानवीय संवेदनाओं का वह रूप है जो किसी अक्षम या गरीब व्यक्ति को सामाजिक सहयोग देने के लिए आर्थिक या आवश्यक वस्तुओं का वितरण है। दान की सार्थक महत्ता किस रूप में सफल हो सकती है? इस तथ्य को ध्यान में रखकर कोई भी व्यक्ति कभी दान नहीं देता है। वर्तमान में किये जाने वाले दान सिर्फ एक पक्षीय होते हैं। जो भी व्यक्ति दान देता है वह या तो गरीब को या फिर किसी संस्था को दान देती है।

दान करने की महत्ता प्राचीनकाल से चली आ रही है और यह कोई एक देश के मानवों की उपज नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवीय समुदाय में समान रूप से लागू है। यह पुण्य कार्य मानव के धर्म से प्रेरित होकर नहीं बल्कि एक आत्मिक प्रेरणात्मक है। प्रत्येक व्यक्ति दान करने के महत्व को ही अन्तर्मन में रखता है और दान करता है। इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं कि जो धन या अन्य पदार्थ दान में दिया जा रहा है वह कहां से आया है तथा उसे किस प्रकार और किस रूप में प्राप्त किया है? यह सत्य है कि दानी व्यक्ति दान देकर सर्वथा अपना मनोयोग पूरा कर लेते हैं और अपने जीवन में दान पक्ष की ओर से निश्चयंत हो जाते है। इससे वे कर्म के एक पक्ष को पूरा कर लेते हैं। वे इसे अपने पूर्वजों की परिपाटी को सफलतापूर्वक निभाते हैं और पुण्य का कार्य समझ संतुष्ट होते हैं।

कभी यह तथ्य किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति में विचारणीय नहीं हुआ कि वह धन या अन्य द्रव्य पदार्थ जो दान में दे रहे हैं, वह क्या सही अर्थों में अर्जित धन था या सिर्फ स्वार्थों के सहयोगी तत्वों से अर्जित। व्यक्ति के पास यह सोचने का शायद वक्त न हो। वह एक पल में अरबों का दान देकर सुर्खियों में आ जाता है, परन्तु अरबों की यह पूंजी कैसे अर्जित की उसका विश्लेषण उसके जेहन में कभी भी नहीं आया और यदि आया भी तो वह इसे अपनी मेहनत और कर्मनिष्ठता से प्राप्त मानता है। शायद यह उसके लिए सर्वथा सत्य हो, क्योंकि उसके समक्ष कभी अभाव नहीं आये होंगे और यदि आये भी होगें तो वे उस पल को क्षणिकता के आगोष में विलीन कर नई राहों की ओर बढ़ गये तथा एक नई इबारत लिखी। ये लोग पूंजी की चमक में ऐसे खो जाते हैं कि अरबों-खरबों का दान करने में नहीं हिचकिचाते हैं।

यह सत्य है कि दानदाता बहुत मेहनती और कर्मठ बन, युवा वर्ग को प्रेरित करते हैं, परन्तु जो दान की गई पूंजी हैं वह इन युवाओं की ऊर्जा के प्रज्वलन का ही परिणाम हैं अर्थात् इस दान की पूंजी में इन युवाओं की मेहनत का बड़ा हिस्सा होता हैं। कहने का प्रयोजन यह है कि जब ये दानी अपनद संस्था से अर्जित पूंजी का बड़ा भाग संचय करता हैं और उसे सिर्फ अपना ही लाभ मानकर उस पूंजी का एकाधिकारी बन जाता है। वह उस पूंजी के अर्जन का विश्लेषण नहीं करता है। यदि विश्लेषण किया जाये तो जो व्यक्ति जितने वेतन का हकदार है उसे उससे कहीं कम वेतन मिलता हैं। यह सिर्फ भ्रम हैं कि वे उन युवाओं को उनकी योग्यता के अनुसार वेतन देते हैं। इस वेतन श्रृंखला में अनेक दोष है, क्योंकि कई व्यक्ति बहुत षारीरिक मेहनत करते है और उन्हें पगार सिर्फ अपनी क्षुधा तृप्ति के लिए ही मिल पाती हैं तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के उपभोग से उन्हें सर्वथा वंचित रहना पड़ता हैं। यदि वे इन भौतिक वस्तुओं को बसाना चाहते हैं तो वे अपना एवं अपने परिवार का पेट काटकर ही अर्जित कर सकते हैं।

बिल गेट्स और वॉरेन बाफेट दानदाताओं की सूची में बड़े नाम है। विष्व के दो धनी व्यक्ति रातोंरात अरबों डालर दानकर सुर्खियों में आ जाते हैं, षायद यही सोचकर कि वे विश्व समुदाय के प्रति धनी लोगों को दान और सही प्रणाली को अपना सकें और प्रोत्साहित कर सके कि नेकी की राह अपनाकर नया मुकाम स्थापित कर सके। उनसे प्राप्त राषि से विष्व में कई गरीब एवं बीमारू देषों में सहायता की जा सके। वहां स्वास्थ्य, पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक किया जा सके। विश्व के इन दिग्गजों की सोच सराहनीय अवश्य हैं, परन्तु क्या वे ऐसी संस्थाओं के माध्यम से विश्व से गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक कुरीतियों और बीमारियों से लड़ पायेंगे, शायद नहीं वे हार जायेंगे। हां इतना सत्य कि ये लोग आर्थिक सम्पन्न लोगों को दान के प्रति प्रेरित कर सकते अवश्य है, किन्तु उपरोक्त विषमताओं के लिए दान करना सार्थक प्रतीत नहीं हो सकता क्योंकि मानव संतति उत्तरोत्तर वृद्धि कर रही है और जीवन के स्रोत में निरंतर कमी आ रही है। यहीं नही पर्यावरण में आई अशुद्धियों के चलते मानव की शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता काफी कमजोर हो गई है।

वर्तमान में धन की महत्ता से मानव में काफी सम्पन्नताएं स्वतः ही आ जाती है और वह सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, षारीरिक विकास की दृष्टि से काफी सक्षम हो जाता है। जब आर्थिक दौर में धन से मानवीय विकास के सभी पहलू पूर्ण हो सकते है, तो फिर मेहनतानें के लेकर इतना ज़्यादा फर्क क्यूं ? जब अधिकतर मनोवैज्ञानिक आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति के

जब तक हर वर्ग के व्यक्ति को उचित वेतन नहीं मिलेगा तब तक दान की महत्ता सभी रूपों में अस्वीकार होगी।
वर्तमान में दान का एक पहलु तो समझ में आता हैं, जो है दानदाता को पुण्य प्राप्त होना, मगर दूसरा पहलु जो राशि वह दान करता है उस पर अपना एकाधिकार मानकर, उसे किस उद्देश्य से दान करता है? जब दानी व्यक्ति अपनी पूंजी पर स्वयं का एकाधिकार मानते हैं तो उन्हें दान के मकसद से धन नहीं देना चाहिए। यदि वे ऐसा करेंगे तो विश्व समुदाय में उस पूंजीवाद की तोहिन होगी जो सिर्फ अपना मुनाफा देखते हैं और अपने उत्पादों की मनमाने ढ़ंग से किमतें तय करते हैं व बाजार में अपने समर्थक के हितों का पूरा ध्यान रखते है और उन्हें अधिक से अधिक मुनाफा दिलवाते हैं। जब वे अपने उत्पादों और सेवाओं के बदले उस जन से अधिक लाभ कमाते हैं और फिर उनकी गरीब पर तरस खा कर दान देना कोई न्याय संगत नहीं है।

वर्तमान समय में पूंजीवाद, भौतिकवाद और बौद्धिक वर्ग एक भाषा बोल रहा है। अतः अभी से बातें उनके समझ नहीं आयेगी। राजतंत्र में शक्ति के बल पर मानव का शोषण होता था। वर्तमान में और से बौद्धिक रूप से श्रेष्ठ व अधिक मेहनताने का अधिकभार गरीब, मध्यम वर्ग को चुकाना पड़ रहा है। यदि दान की दयालु प्रवृत्ति हृदय में विराजमान है तो अपनी संस्था के निचले तबके के कर्मचारियों को भी उचित वेतन दे ताकि उनकी स्थिति में बेहतर सुधार हो सके। इससे ये कर्मचारी सम्पन्न होगें तो वे अपने क्षेत्र के गरीब तबके के बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति अपना दायित्व समझने लगेंगे। इससे आम लोगों का जीवन स्तर ऊंचा होगा और आर्थिक सम्पन्न व्यक्तियों के साथ अच्छा तालमेल स्थापित हो सकता है। जिससे समाज में आ रही विषमताएं कम हो सकती है, क्योंकि जब बड़े और आर्थिक सम्पन्न व्यक्ति ही समाज की वास्तविकताओं को जानने के लिए समय नहीं निकाल सकते तो एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति इन सब के लिए अपना व धन की बर्वादी मानता है। यही नही इससे प्रषासन में भी एक सकारात्मक सुधार आयेगा, जब व्यक्ति को हर वस्तु व सेवा सुलभ होगी तो आपराधिक प्रवृत्तियों में कमी आने लगेंगी।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता हैं कि दान की महत्ता तभी सार्थक हो सकती है जब व्यक्ति दान के स्थान पर नीचे के तबके को अच्छा वेतन दें। यदि मानव समुदाय का भला चाहने वाले दान को अपने कर्म मानते हैं और समाज के प्रति अपना श्रेष्ठ दायित्व मानते है, तो यह बिल्कुल गलत हैं क्योंकि वह सिर्फ एक दिखावा मात्र है। यदि समाज के प्रति दायित्व निभाना है तो हर व्यक्ति का काम अर्थात् रोज़गार उपलब्ध कराओं ताकि सभी को अपने श्रम के साथ न्याय करने का मौका मिल सके।

एक दानदाता जा अपने एवं अन्य बुद्धिजीवियों के श्रम से एक बड़ा कारोबार स्थापित करता है। वह उस बुद्धिजीवी को जिससे उसे मुनाफा एवं अधिक लाभ है उसे अधिक पारिश्रमिक देता है और एक वह निम्न स्तर एवं कम योग्य व्यक्ति जो शारीरिक श्रम करता है उसे अतिन्यून पारिश्रमिक मिलता है।

जिस प्रकार सामंतशाही काल में जो सामंत अधिक शक्ति सम्पन्न होता था उसे उतने ही भूभाग का स्वामी मान लिया जाता था उसी प्रकार आज के आर्थिक एवं बौद्धिक युग में जो अनुभवी और सीनियर है उसे अधिक वेतन मिलता है। यदि सामंत का राज्याधिकार कम करने पर वह विद्रोही हो जाता था उसी प्रकार आज का यह वर्ग भी बगावत करने को तत्पर रहता है।

वर्तमान मे बुद्धिजीवी अपने उत्पादों की किमत अपने उत्पादन के खर्च और अपने सहयोगियों के अधिकतम मुनाफे को सम्मिलित करते हुए कार्य करते है। अपने वर्ग को हर वह खुशी और सुख मिलें जो उसके उत्पादों को अधिक से अधिक बेंच सके। राजतंत्र में षासक वर्ग और सामंत वर्ग भी ऐसा ही करता था जो शासक को पोषित करता था वह हर अधिकार का उपयोग करता था।

लेखक - राकेश सिंह राजपूत
मोबाइल - 9116783731 

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