प्रगतिवादी उपन्यास

Pragativadi Upanyas

यशपाल 


यशपाल सक्रिय क्रांतिकारी पृष्ठभूमि से साहित्य में आए थे।

यशपाल का पहला उपन्यास 

  • दादा-कॉमरेड, जो वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ।

अंतिम उपन्यास

  • मेरी तेरी उसकी बात, जो वर्ष 1973 में प्रकाशित हुआ।

अन्य उपन्यास
  • दादा-कॉमरेड (1941)
  • देशद्रोही (1943)
  • दिव्या (1945)
  • पार्टी-कॉमरेड (1946)
  • मनुष्य के रूप (1949)
  • अमिता (1956)
  • झूठा-सच 1 और 2 (1958-60)
  • बारह घंटे (1963)
  • अप्सरा का श्राप (1965)
  • क्यों फंसे (1968)
  • मेरी तेरी उसकी बात (1973)

  • यशपाल ने गांधीवादी राजनीति और आर्य समाज की छाया में अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी। विचारों की दृष्टि से इसे उनकी लम्बी रचनात्मक यात्रा भी कहा जा सकता है।
  • 'दादा-कॉमरेड' यशपाल के क्रांतिकारी और फरारी के जीवन के अनुभवों पर आधारित है। तीसरे दशक के अंत तक आतंकवादी क्रांतिकारियों में जो वैचारिक बदलाव घटित हो रहा था, यह बदलाव उनके बीच जिस प्रकार बहस का एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ था, दो प्रमुख पात्रों को केन्द्र में रखकर यशपाल परिवर्तन की उस समूची प्रक्रिया को अंकित करते हैं।
  • दादा के रूप में यशपाल चन्द्रशेखर आजाद को प्रस्तुत करते हैं, जबकि कॉमरेड अर्थात हरीश के रूप में वे स्वयं भी हो सकते हैं- काफी दूर तक हैं।


'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना कब की गई?
- वर्ष 1936 में

प्रगतिवादी उपन्यासकार

  • राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, फणीश्वरनाथ 'रेणु', मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, अमरकांत, मार्कण्डेय, बदरीनाथ तिवारी, अजित पुष्कल
  • इस प्रगतिवादी जीवन दृष्टि ने उपन्यास के क्षेत्र में आंचलिक उपन्यास की धारा को जन्म दिया।

आंचलिक उपन्यासकार

  • नागार्जुन, फणीश्वरनाथ 'रेणु', भैरवप्रसाद गुप्त, शिवप्रसाद सिंह, राही मासूम रजा, जगदीश चंद्र, राजेंद अवस्थी, हिमांशु जोशी, श्रीलाल शुक्ल, विवेकी राय, श्रीचंद अग्निहोत्री, मोहरसिंह यादव, रामदरश मिश्र, रांगेय राघव, मन्नू भंडारी माने जाते हैं जिन्होंने ग्रामांचलिकता में प्रगतिवादी चेतना तलाशने का प्रयत्न किया है। इन उपन्यासों में दलित चेतना को प्रगतिवादी भावधारा की दृष्टि से चित्रांकित किया है।
  • आंचलिक उपन्यासों की एक विधा पहाड़ी आंचलिक उपन्यासों में भी आज प्रगतिवादी दृष्टिकोण अत्यंत यथार्थ मात्रा में लक्षित होता जा रहा है।

पहाड़ी आंचलिक उपन्यास

  • राजेंद्र अवस्थी - जंगल के फूल, 1960
  • योगेंद्र सिन्हा - वन के मन मे, 1962
  • श्याम परमार - मोरझाल और मादल का दर्द 1963
  • हिमांशु श्रीवास्तव - बुरूंश तो फुलते हैं, 1965
  • शानी - शालवनों का द्वीप, 1967
  • जयप्रकाश भारत - कोहरे में खोये हुए चांदी के पहाड़, 1968
  • शिवशंकर - मोगरा, 1970
  • सत्यप्रकाश पांडेयजी - चंद्रवदनी, 1971
  • भगवती प्रसाद मिश्र - खारे जल का गांव, 1973
  • हिमांशु जोशी - कगार की आग, 1978
  • शिवप्रसाद सिंह - शैलपुष्प, 1989
  • इन उपन्यासों में प्रगति से कोसों दूर पहाड़ी आंचल में बसे जनजीवन का चित्रांकन करते हुए प्रगतिवादी विचारधारा को प्रवाहित किया है।
  • जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का 'मुर्दाघर' झोपड़पट्टी पर आधारित हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है।

अन्य उपन्यास

  • भीष्म साहनी - बसंती
  • शुभंकार कपूर - विष के चरण
  • रामदरश मिश्र - अपने लोग
  • शैलेश मटियानी - बंबई से बोरीबंदर तक
  • इन उपन्यासों में झोपड़पट्टी जनजीवन का यथार्थ चित्रण किया गया है।

  • हिन्दी में दलित जनजीवन का चित्रण करने वाले उपन्यास, मराठी के दलित साहित्य के अनुकरण पर लिखे जाने लगे। इनमें दलित चेतना को दिखाकर उपन्यास लेखकों ने प्रगतिवादी विचारधारा के दर्शन कराए हैं।
  • जगदीश चन्द्र - धरती धन न अपना, 1972 में प्रकाशित इस उपन्यास को हिन्दी का प्रथम दलित उपन्यास माना जाता है।

दलित जनजीवन का चित्रण में लिखे अन्य प्रगतिवादी उपन्यास

  • रामदरश मिश्र - पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ
  • प्रभाकर माचवे - जों
  • शिवप्रसाद सिंह - अलग-अलग वैतरणी
  • अमृतलाल नागर - नाच्यो बहुत गोपाल
  • मन्नू भंडारी - महाभोज
  • मोहरसिंह यादव - बंजर धरती
  • श्रीचंद अग्निहोत्री - नयी बिसात

ग्रामांचलिक उपन्यास

  • राही मासूम रजा - आधा गांव, 1966
  • श्रीलाल शुक्ल - , 1968
  • जगदीश चंद्र - धरती का धन न अपना
  • जगदम्बा प्रसाद दीक्षित - मुर्दाघर, 1974
  • गोविंद मिश्रजी - लाल-पीली जमीन

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