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करतार सिंह सराभा जो भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत बने

byDivanshuGS -May 24, 2019
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  • आज 24 मई को क्रांतिकारी सरदार करतार सिंह सराभा की 123वीं जयंती है। वे ऐसे महान क्रांतिकारी थे, जिन्हें मात्र 19 साल की उम्र में अंग्रेजी सरकार ने फांसी पर इसलिए लटका दिया था कि आगे चलकर कहीं यह अंग्रेजी हुकूमत की नींव न हिला दे। वे भारत में क्रांतिकारी आदर्शवाद के अग्रदूत बन गये।

जीवन परिचय 
 
करतार सिंह सराभा का जन्म लुधियाना के सराभा नामक गांव में 24 मई, 1896 को हुआ था। इनसे पिता श्री मंगल सिंह और माता साहिब कौर का साया बचपन में ही उठ गया था। माता—पिता के देहांत के बाद इनके दादा जी ने इनका पालन—पोषण किया था।

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में रह कर ही पूरी की। इसके बाद लुधियाना में स्थित मालवा खालसा हाई स्कूल से आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद की शिक्षा उन्होंने अपने रिश्तेदार के पास उड़ीसा रह कर की। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनके दादाजी ने आगे की शिक्षा के लिए उन्हें 1912 में अमरिका भेजा गया। 

इस दौरान एक भारतीय होने के कारण उनको गुलाम की दृष्टि से देखा गया और गुलामों की तरह व्यवहार सहना पड़ा। उनके साथ हुए इस दुर्व्यवहार का किसी ने जबाव दिया कि 'क्योंकि तुम भारत देश से आये हो और भारत एक गुलाम देश है।' बस फिर क्या था, यहीं से बालक करतार सिंह के हृदय में क्रांति का अंकुरण शुरू हो गया। 

अमरिका में क्रांतिकारियों के संपर्क में आए 

उनसे पहले अमेरिका और कनाड़ा में अनेक भारतीय रहते थे। अमरिका के सेन फ्रांसिस्को में ही वर्ष 1913 में गदर पार्टी की स्थापना सोहन सिंह भकना और लाला हरदयाल ने की थी। इन दोनों क्रांतिकारियों द्वारा ही अमेरिका में शिक्षा ग्रहण करने आए छात्रों से संपर्क और उन्हें भारत की आजादी के लिए प्रेरित किया गया। 17 वर्ष की छोटी उम्र में करतार सिंह ने अपनी पढ़ाई छोड़कर गदर पार्टी की सक्रिय सदस्यता ग्रहण कर ली। वह गदर पत्रिका के गुरुमुखी भाषा के सम्पादक भी बन गए और बहुत ही अच्छे तरीके से अपने क्रांतिकारी लेखों और कविताओं के माध्यम से देश के नौजवानों को क्रांति के साथ जोड़ा। 

यह पत्रिका हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भारतीय भाषाओं में छपती थी तथा विदेशों में रह रहे भारतीयों तक पहुंचाई जाती थी। गदर पार्टी का उद्देश्य था 1857 की क्रांति की तरह ही एक बार फिर ऐसी ही क्रांति के माध्यम से देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद करवाना था। 

गदर पार्टी इतनी बड़ी बन गई थी कि इसकी खबर इंग्लिश के अखबारों में छपनी शुरू हो गई। कुछ सरकारी जासूस भी इस पार्टी में शामिल हो रहे थे।

जब ब्रिटिश हुकूमत वर्ष 1914 में शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल था, जिसके चलते ब्रिटिश सेना और सरकारी तंत्र खुद को इस युद्ध में बचाने में लगा हुआ था। इस गदर पार्टी ने अपने लिए क्रांति करने का सुनहरा अवसर जानकर अपने पत्र में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का आह्वान कर दिया। 5 अगस्त 1914 को एक पत्र में इसकी जानकारी पार्टी के हर सदस्य को दी गई। 15 सितंबर 1914 को करतार सिंह अपने साथी सत्येन सेन और विष्णु गणेश पिंगले के साथ अमेरिका छोड़कर भारत रवाना हुए। 

करतार सिंह कोलम्बो के रास्ते नवम्बर, 1914 में कलकत्ता पहुंच गए। बनारस में उनकी मुलाकात रास बिहारी बोस से हुई, जिन्होंने करतार सिंह को पंजाब जाकर संगठित क्रांति शुरू करने को कहा।

रास बिहारी बोस 25 जनवरी 1915 को अमृतसर आए और करतार सिंह व अन्य क्रांतिकारियों से सलाह कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने का फैसला किया गया। इसके लिए ब्रिटिश सेना में काम कर रहे भारतीय सैनिकों की मदद से सैन्य-छावनियों पर कब्जा करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए 21 फरवरी 1915 का दिन सारे भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया गया। इसी बीच इन्होंने अपने लुधियाना ज़िले में एक छोटी सी फैक्टरी लगाई जहां छोटे हथियार बनाए जाते थे।

खुद करतार सिंह ने लाहौर छावनी के शस्त्र भंडार पर हमला करने का जिम्मा लिया। सारी तैयारियां पूरी हो गईं, लेकिन कृपाल सिंह नामक एक गद्दार साथी पुलिस का मुखबिर बन गया और क्रांति की योजना को पुलिस के सामने रख दिया। पुलिस को इसकी खबर मिलते ही क्रांति से पहले 19 फरवरी को ही गदर पार्टी के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। भारतीय सैनिकों को छावनियों में शस्त्र-विहीन कर दिया गया। इसे अंग्रेजों ने 'लाहौर षड्यंत्र' का नाम दिया। 

करतार सिंह सराभा यहां से बच कर निकलने में कामयाब रहे। लेकिन वे देश छोड़कर नहीं गए। उन्हें काबुल में मिलने के लिए कहा गया, परंतु काबुल जाने की बजाय करतार सिंह अपने साथियों को छुड़वाने की योजना बना रहे थे। उनकी यह कोशिश नाकाम रही और उनको भी गिरफ्तार कर बाकी आंदोलनकारियों के साथ लाहौर जेल भेज दिया गया।

उन पर मुकदमा चलाया गया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की साजिश रचने के आरोप में इन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 

अंग्रेजी हुकूमत ने 16 नवम्बर 1915 को इस वीर बालक को लाहौर सैंट्रल जेल में फांसी के तख्ते पर लटका दिया। आखिर दोष क्या था- अपने मुल्क के प्रति वफादारी और गद्दार अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने की इच्छा शक्ति।

सरदार करतार सिंह सराभा 19 साल की उम्र में फांसी पर हंसते—हंसते झूम गए। गदर आंदोलन तो सफल न हो सका, लेकिन सरदार करतार सिंह ने देश में क्रांति की ऐसी लहर पैदा की कि आने वाली पीढ़ी के लिए वे प्रेरणास्रोत बन गए।  

भगत सिंह को अपने प्रेरणास्रोत करतार की लिखी हुई एक ग़ज़ल बहुत प्रिय थी और वे अक्सर इसे गुनगुनाते थे:

“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा;
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशाँ मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत!
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा।”
Tags: Mahapurush
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