छन्द

छन्द

परिभाषा -
  • जिस शब्द-योजना में वर्णों या मात्राओं और यति-गति का विशेष नियम हो, उसे छन्द कहते हैं।
  • छन्द को पद्य का पर्याय कहा है। विश्वनाथ के अनुसार ‘छन्छोबद्धं पदं पद्यम्’ अर्थात् विशिष्ट छन्द में बंधी हुई रचना को पद्य कहा जाता है।
  • छन्द ही वह तत्व है, जो पद्य को गद्य से भिन्न करता है। 
  • आधुनिक हिन्दी कविता में परम्परागत छन्द का बंधन मान्य नहीं है। उसमें ‘मुक्त छन्द’ का प्रयोग होता है। बिना छन्द या लय के कविता की रचना नहीं की जा सकती।

छन्द का अर्थ - 

  • छन्द शब्द की व्युत्पत्ति छद् धातु से मानी गयी है, जिसके दो अर्थ है - 
  1.  बांधना या आच्छादन करना।
  2.  आह्लादित करना।

छन्द-प्रभाकर में छन्द की परिभाषा 

  • ‘मत्तवरण गति यति नियम अन्तहि समता बन्द।
  • जा पद रचना में मिले, भानु भनत सुइच्छन्द।।
  • वर्णों या मात्राओं की संख्या व क्रम तथा गति, यति और चरणान्त के नियमों के अनुसार होने वाली रचना को छन्द कहते हैं।
  • छन्दशास्त्र को ‘पिंगल-शास्त्र’ भी कहते हैं क्योंकि इसके प्रथम प्रधान प्रवर्तक श्री पिंगलाचार्य थे।

कविता में छन्दों का उपयोग और महत्त्व -

  • आजकल कविता में छन्द-बंधन को भावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति में बाधक मानकर, उसे अनिवार्य नहीं माना जाता है, फिर भी कविता में छन्दों के उपयोग और महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि -
  1. छन्द भावों की अभिव्यक्ति को स्पष्टतः और तीव्रतर रूप में प्रस्तुत करते हैं।
  2. छन्द भावों को बिखरने से रोकते हैं और उनमें एक समता स्थापित करते हैं।
  3. छन्द से कविता में सजीवता, रमणीयता और सौन्दर्य तथा प्रभाव की प्रतिष्ठा होती है।
  4. छन्द कविता में प्रेषणीयता लाकर रस-निष्पत्ति में योगदान देते हैं।
  5. छन्द-बद्ध रचना शीघ्र याद हो जाती है और चिरकाल तक स्मृत्ति मे बनी रहती है। वेदों का स्वरूप छन्द-बद्ध होने से ही अक्षुण्ण रहा है।

छन्द के निम्नलिखित अंग होते हैं-

  1. वर्ग और मात्रा - किसी अक्षर को बोलने में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। मात्राएं दो प्रकार की होती है - ह्रस्व (लघु) औद दीर्घ (गुरु)। लघु - अ,इ,उ,ऋ (।) और दीर्घ - आ, ई, ऊ, ए,ऐ,ओ, औ (ऽ)
  2. गण - तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण 8 होतेे हैं - य माता राज भान स लगा।
  3. गति - निश्चित वर्णों या मात्राओं तथा यति से नियंत्रित छन्द की लय या प्रवाह को गति कहते हैं।
  4. यति - छन्द के पढ़ते समय नियमानुसार निश्चित स्थान पर कुछ ठहराव को यति कहते हैं।
  5. चरण - पद्य के प्रायः चतुर्थांश को चरण कहते हैं। इसी को पद भी कहा जाता है।
  6. तुक - तुक छन्द का प्राण है, यह पद्य को गद्य होने से बचाती है। चरणान्त में वर्णों की आवृत्ति को तुक कहते हैं।
  7. लघु और गुरु 
  8. संख्या और क्रम

छन्द के भेद -


  • छन्द दो प्रकार के होते हैं- 
  1. वर्णिक छन्द और 2. मात्रिक छन्द।
  • वर्णिक छन्द में वर्णों की संख्या तथा लघु-गुरु का स्थान नियत होता है।
  • मात्रिक छन्द वे होते हैं, जिनमें अक्षरों की संख्या में स्वतंत्रता हो और मात्राओं की संख्या नियत हो।
  • तीन-तीन उपभेद - सम, अर्धसम, विषम।
  • जिसमें चारों चरण समान लक्षण (वर्ण या मात्रा की दृष्टि से) के हो वह समछन्द कहलाता है। जैसे - मात्रिक समछन्द चौपाई, हरिगीतिका तथा वर्णिक सम इन्द्रवज्रा।
  • जिसका प्रथम और तृतीय चरण तथा द्वितीय और चतुर्थ चरा समान हो वह अर्ध समछन्द हैं। दोहा मात्रिक छन्द।
  • जिस छन्द के चारों चरण एक-दूसरे से भिन्न लक्षण के हो उसे विषम छन्द कहते हैं। मात्रिक विषम छन्द 

दोहा -

  • अर्ध सम मात्रिक छन्द हैं। इसमें कुल 48 मात्राएं होती है।
  • दोहे के विषम चरणों (पहला, तृतीय) में प्रत्येक में 13-13 मात्राएं तथा सम चरणों (2,4) में 11-11 मात्राएं होती है। इसके विषम चरणों के आदि में जगण (।ऽ।) नहीं होता और अन्त में तुक मिलती है।
  • मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
  • जा तन की झांई परे, स्यामु हरित-दुति होय।।
  • सम चरणों के अन्त में गुरु-लघु ऽ। हो।

सोरठा

  • अर्ध सम मात्रिक छन्द है, इसमें 48 मात्राएं होती है।
  • इसके प्रथम तथा तृतीय चरणों (विषम चरणों) में से प्रत्येक चरण में 11-11 मात्राएं एवं दूसरे और चौथे (सम) चरणों में से प्रत्येक चरण मे 13-13 मात्राएं होती है।
  • विषम चरणों के अन्त में एक लघु वर्ण आना चाहिए। यह दोहा का उल्टा होता है और इसके समय चरणों में तुक प्रायः नहीं मिलती है।
  • सम चरणों के अन्त में गुरु-लघु नहीं होना चाहिए 
  • जानि गौरि अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
  • मंजुल मंगल, मूल बाम, अंग फरकन लगे।।
चौपाई 
  • यह मात्रिक सम छन्द है।
  • इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएं होती है।
  • चरण के अंत मे जगण और तगण नहीं होते। अन्त में दो लघु या दो गुरु होते है। गुरु-लघु का क्रम भी नहीं होता है। चौपाई के दो चरणों को ‘अर्धाली’ कहते हैं।
प्रभु जब जात जानकी जानी।
सुख सनेह सोभा गुन खानी।।


चौपई 

  • मात्रिक सम छन्द।
  • इसके प्रत्येक चरण में 15 मात्राएं होती हैं और अन्त में क्रमशः एक गुरु तथा एक लघु होता है।
बापू थे तुम पुरुष महान।
किया विलक्षण तुमने त्राण।।


सवैया

  • सवैया छन्द में 22 से लेकर 26 वर्ण तक होते हैं इसमें चारों चरण तुकान्त होते हैं 
  • इसके मुख्य भेद तीन होते हैं 1. भगण, से बना सवैया 2. जगण से बना और 3. सगण से बना।

मदिरा सवैया

  • इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 7 भगण होते हैं तथा अन्त में एक गुरु होता है। इसमें कुल 22 वर्ण होते हैं।

सिंधु तरयों उनको बनरा, तुम पै धनु रेख गई न तरी।
बानर बांधत सो न बंध्यो, उन वारिधि बांध कै बाट करी।
श्री रघुनाथ प्रताप की बात, तुम्हैं दसकण्ठ! न जानि परी।


तेलहु तूल हु पूंछ जरीन जरी, जरि लंक जराइ जरी।

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