Type Here to Get Search Results !

बिस्मार्क

ओटोवान बिस्मार्क 

  • जन्म 1 अप्रैल, 1815 ई. प्रशा के ब्रेडानबर्ग के एक कुलीन परिवार में हुआ।
  • शिक्षा गोर्तिजान एवं बर्लिन विश्वविद्यालय में पूर्ण हुई।
  • प्रशा की सिविल सेवा में नौकरी की, कुछ वर्ष बाद नौकरी छोडकर पौमेरेनिया में अपनी जागीर की देखभाल करने लगा।
  • उसका संबंध बर्लिन की अनुदारवादी विचारधारा की संस्था ट्रीगलाफ (Trieglaff) से हुआ।
  • वह एक अत्यंत योग्य एवं कुशल व्यक्ति था किन्तु प्रजातंत्र में उसकी कतई आस्था नहीं थी।
  • वह उदारवादी विचारधारा का कट्टर विरोधी था। 
  • उसने कहा कि मै। इस युग की उस भावुकता से डरता हूं, जिसमें प्रत्येक दीवाने विद्रोही को सच्चा देशभक्त समझाा जाता है।'
  • जर्मनी के लिए लोकतंत्र को खतरनाक बताते हुए उसने कहा था, 'मेरा विचार है कि प्रशा के सम्मान के लिए अन्य सभी चीजों से अधिक आवश्यक लोकतंत्र से बचना है। लोकतंत्र के साथ सम्पर्क लज्जास्पद है।'
  • उसने अपने विचार अपनी पुस्तक 'रिफ्लेक्शन्स एण्ड रेमेनिसेन्सेज' में लिखे हैं, ''मैं हमेशा से हुकूमत के साथ सहानुभूति करता आया हूं। बचपन में न्याय के विषय में मरे विचार थे कि हरमोडिसय, ऐरिस्टोजेटन और ब्रूटस अपराधी थे और टले भी विद्रोही और हत्यारा था। तीस वर्षीय युद्ध से पहले जो कोई जर्मन राजकुमार सम्राट का विरोध करता था, तो मुझे क्रोध आया करता था लेकिन ग्रेट इलेक्टर (1640-88 ई.) के बाद से मेरे विचार साम्राज्य विरोधी बन गये।'  
  • वह संविधान को घृणा की दृष्टि से देखता था तथा उसे केवल रद्दी का टुकड़ा समझता था। इसलिए जब फ्रैंकफर्ट की संसद के निमंत्रण पर जर्मन सम्राट बनने का प्रस्ताव प्रशा के राजा ने ठुकरा दिया था, तो उसे व्यक्तिगत तौर पर प्रसन्नता हुई थी।
  • बिस्मार्क ने 1847 ई. मे राजनीति में प्रवेश किया। 1847 ई. में वह प्रशा के सम्राट द्वारा बुलाई गई संयुक्त प्रशियन डायट ‘संसद’ का सदस्य निर्वाचित हुआ। इसी समय उसे राष्ट्रीय असेम्बली एवं संविधान सभा का सदस्य बनने का मौका मिला।
  • 1851 ई. में ही सम्राट ने बिस्मार्क को फ्रैंकफर्ट की संसद में प्रशा का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। इस संसद में उसने आठ वर्ष तक प्रशा का प्रतिनिधित्व किया। इन 8 वर्षों में उसने कूटनीतिक शिक्षा ग्रहण की। इस दौरान उसके आस्ट्रिया समबन्धी विचारों में भी परिवर्तन आया।
  • सम्राट विलियम आस्ट्रिया को रूष्ट नहीं करना चाहता था अतः उसने बिस्मार्क को फ्रैंकफर्ट संसद में वापस बुला लिया तथा उसकी 1859 ई. में नियुक्ति रूस में राजदूत के रूप में सेंट पीटर्सबर्ग में की। बिस्मार्क ने रूस के जार अलेक्जेण्डर द्वितीय से व्यक्तिगत मित्रता स्थापित की।
  • क्रीमिया के युद्ध के समय प्रशा में रूस के विरुद्ध युद्ध घोषित करने की मांग की गई लेकिन प्रशा इस मामले में तटस्थ रहा और प्रशा के इस कदम से रूस के जार अलेक्जेण्डर द्वितीय और बिस्मार्क की मित्रता में ओर प्रगाढ़ता आई।
  • 1859-62 ई. तक बिस्मार्क रूस में राजदूत रहा।
  • मार्च, 1862 ई. में बिस्मार्क को सेंट पीटर्सबर्ग से हटाकर पेरिस में फ्रांस का राजदूत बनाकर भेजा गया। फ्रांस में बिस्मार्क को नेपोलियन तृतीय एवं उसके मंत्रियों से मिलने एवं उनकी नीतियों को समझने का अवसर मिला।
  • प्रशा के युद्ध मंत्री वान रून ने सम्राट विलियम प्रथम को सलाह दी कि बिस्मार्क को अपना चांसलर नियुक्त करें। 
  • प्रशा में संकट के चलते सम्राट ने बिस्मार्क को प्रशा बुला लिया तथा सितंबर 1862 ई. में अपना चांसलर नियुक्त किया।

बिस्मार्क की रक्त और लोहे की नीतिः


  • बिस्मार्क को जिस समय चांसलर बनाया गया तब सम्राट एवं संसद में सैनिक बजट को लेकर विवाद चलर रहा था। अत: बिस्मार्क ने जब चांसलर पद की शपथ ली थी, तब सम्राट को सम्बोधित करते हुए उसने कहा था, 'मैं श्रीमान के साथ नष्ट हो जाउंगा किन्तु संसद के इस संघर्ष में आपका साथ नहीं छोडूंगा।'
  • बिस्मार्क ने राष्ट्रहित में निम्न सदन की अवहेलना कर उच्च सदन (राज्यसभा) से बजट पास करवाने का असंवैधानिक निर्णय लिया। 1862 ई. से 1866 ई. तक इसी प्रकार केवल उच्च सदन द्वारा बजट पास किया जाता रहा। 
  • बिस्मार्क ने दृढ निश्चय के बल पर प्रशा की सेना का पुनर्गठन कर इस यूरोप की सर्वश्रेष्ठ सेना बना दिया।
  • उदारवादियों के सिद्धांतों का खण्डन करनते हुए उसने अपनी नीति को 1862 ई. में स्पष्ट किया, ''जर्मनी का ध्यान प्रशा के उदारवाद की ओर नहीं है वरन् उसकी शक्ति पर लगा हुआ है। प्रशा को अनुकूल अवसर आने तक अपनी शक्ति को सुरक्षित रखना है। हम पहले भी कई बार इस प्रकार के अवसर खो चुके हैं। हमारे समय की महान् समस्याएं भाषणों औ बहुमत के प्रस्तावों द्वारा नहीं बल्कि 'रक्त और लौह' की नीति के द्वारा ही सुलझ सकती है। 1848—49 ई. में हमने यही भूल की थी।''

बिस्मार्क की विदेश नीतिः


  • बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य प्रशा को शक्तिशाली बनाकर जर्मन संघ से आस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव को समाप्त करके प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। 
  • इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक था कि राज्य के समस्त साधनों पर उसका अधिकार हो। उसका यह अटूट विश्वसा था कि राजतंत्र का एकमुखी मार्ग ही जर्मनी की समस्या का एकमात्र समाधान है। बिस्मार्क स्वयं को केवल राजा के प्रति उत्तरदायी मानता था।
  • उसने प्रशा की सेना का पुनर्गठन करके उसे यूरोप में सर्वश्रेष्ठ बना दिया। इसे पश्चात् उसने कूटनीति चालों से यूरोप में आस्टिृया को मित्रविहीन करने तथा प्रशा के लिए शक्तिशाली मित्रों की तलाश प्रारम्भ की। 

इस हेतु निम्न प्रयास किएः

  • इस समय अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति प्रशा के अनुकूल थी। जर्मनी की राष्ट्रीयता के शत्रु, आस्ट्रिया और रूस, जिनमें पहले परस्पर मित्रता थी, उनमें क्रीमिया युद्ध के परिणामस्वरूप मनमुटाव हो गया था। ​उसने इस स्थिति से लाभ उठाना चाहा और रूस को अपनी तरफ मिलाने का प्रयत्न किया। 
  • 1862 ई. में जब पोलैण्ड वालों ने विद्रोह किया, तो उसने विद्रोह के दमन में रूस की सहायता की, यद्यपित जर्मनी में लोकमत पोल लोगों के पक्ष में था और इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा आस्ट्रिया की सहानुभूति भी उनके साथ थी। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसने रूस का सहयोग कर उसकी सहानुभूति प्रशा के लिए प्राप्त कर ली थी। आस्ट्रिया का रूख पोल लोगों के पक्ष में होने के कारण रूस आस्ट्रिया से और भी अधिक अप्रसन्न हो गया। 
  • उसने फ्रांस के साथ व्यापारिक संधि करके उसकी भी मित्रता प्राप्त कर ली। इस प्रकार उसने ऐसी स्थिति तैयार कर ली, जिसमें आवश्यकता के समय आस्ट्रिया को कोई सम्भव सहायता प्राप्त न हो सके। 

बिस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण निम्न चरणों में पूर्ण कियाः

  • डेनमार्क से युद्ध- 1864 ई.
  • आस्ट्रिया से युद्ध- 1866 ई.
  • फ्रांस से युद्ध- 1870 ई.

 

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Below Ad