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दिल्ली सल्तनत: गुलाम वंश

byDivanshuGS -January 07, 2018
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दिल्ली सल्तनत: गुलाम वंश



गुलाम वंश (1206-1290 ई.)

  • दिल्ली सल्तनत के सुल्तान ‘गुलामवंश के सुल्तान’ कहलाते थे।
  • इन सुल्तानों को गुलाम वंश का कहने के स्थान पर ‘प्रारंभिक तुर्क सुल्तान’ अथवा ‘मामलूक सुल्तान’ कहना अधिक उचित है, क्योंकि ये स्वतंत्र माता-पिता की संतान थी। 
  • कुतुबुद्दीन ऐबक ने ‘कुत्बी’ इल्तुतमिश ने ‘शम्शी’ तथा बलबन ने ‘बलबनी’ राजवंश की स्थापना की।
  • गुलाम वंश का प्रथम मुस्लिम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210 ई.) था। ऐबक मुहम्मद गौरी का गुलाम था। 
  • 1206 को वह सुल्तान बना। ऐबक का अनौपचारिक राज्यारोहण 25 जून को हुआ, पर उसकी सत्ता को मान्यता व नियुक्ति पत्र तीन वर्ष बाद मिला। 
  • उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। सिर्फ उसने मलिक और सिपहसालार की पदवियों से संतुष्ट रहा। न तो अपने नाम से सिक्का ढलवाया और न खुतबा पढ़ा।
  • 1208 ई. में दासता से मुक्ति प्राप्त की।
  • कुतुबुद्दीन ऐबक की उदारता और दानप्रियता के कारण उसे ‘लाख बख्श’ (लाखों का दान देने वाला) कहा जाता है। उसकी राजधानी लाहौर थी। ऐबक ने दिल्ली में ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद तथा अजमेर में ‘अढाई दिन का झोपड़ा’ नामक मस्जिद बनवायी। 
  • हसन निजामी, फक्र-ए-मुदब्बिर जैसे विद्वानों को संरक्षण दिया।
  • उसने सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी की याद में दिल्ली में 1210 ई. में कुतबमीनार का निर्माण भी शुरू कराया था, जिसे बाद में 1231 में उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने पूरा कराया।
  • 1210 ई. में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरकर ऐबक की मृत्यु हो गयी। उसके बाद कुछ समय के लिए आरामशाह को गद्दी पर बैठाया।


इल्तुतमिश 1211-1236 

  • इल्तुतमिश को ‘दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक’ माना जाता है। वह इल्बारी तुर्क था। उसे 1228 में सुल्तान पद के लिए बगदाद के खलीफा का अधिकार पत्र मिल गया।
  • इसने शासन में सहायता देने के लिए अपने 40 गुलाम सरदारों का एक दल बनाया, जिसे ‘चालीसा दल’ कहा जाता है। 
  • इल्तुतमिश की मृत्यु बामियान आक्रमण के समय बीमार होने पर अप्रैल, 1336 में हो गई।
  • उसने लाहौर के स्थान पर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया।
  • इल्तुतमिश ने प्रान्तों में ‘इक्ता’ शासन व्यवस्था आरम्भ की।
  • सुल्तान की सेना के निर्माण का विचार दिल्ली सल्तनत को प्रदान किया।
  • वह पहला सुल्तान था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाये। सल्तनत काल के दो महत्त्वपूर्ण सिक्के जारी किये जिसमें चांदी के ‘टंका’ (175 ग्रेन) तथा तांबे का ‘जीतल’ थे।
  • तबकात-ए-नासिरी के लेखक मिन्हाज-उस-सिराज, रूहानी को संरक्षण प्रदान किया।
  • इल्तुतमिश, निःसंदेह गुलाम-वंश का वास्तविक संस्थापक था - डॉ. ईश्वरी प्रसाद 
  • उसने 1232 ई. में कुतबमीनार का निर्माण पूरा करवाया।
  • इल्तुतमिश के बाद 1236 ई. में रुक्नुद्दीन शासक बना। 

रजिया

  • इल्तुतमिश ने अपना उत्तराधिकारी अपनी पुत्री रजिया सुल्तान को चुना था, लेकिन महिला विरोधी कट्टरपंथियों के चलते उसकी मृत्यु के बाद रुक्नुद्दीन फिरोजशाह को गद्दी पर बिठाया गया था, जिसकी कुछ समय बाद हत्या कर दी गई।
  • रजिया सुल्तान 1236 ने सुल्तान पद पर अधिकार कर लिया। उसने अबीसीनिया के जमालुद्दीन याकूत को ‘अमीर आखूर’ (अश्वशाला का प्रधान) नियुक्त किया। 
  • रजिया को सबसे पहले लाहौर के सूबेदार कबीर खां के विद्रोह का सामना करना पड़ा। 
  • उसने सरहिन्द के सूबेदार व विद्रोही अल्तूनिया से विवाह किया। दोनों को कैथल के समीप 13 अक्टूबर, 1240 को मार डाला गया।
  • रजिया पहली तथा अंतिम सुल्तान थी, जिसने अपनी योग्यता और चरित्र के बल से दिल्ली की सत्ता प्राप्त की। उसे जनता ने शासक बनाया था।
  • उसके बाद मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-42 ई.) सुल्तान बना। इसके समय तुर्क अमीरों ने ‘नायब-ए-मुमलिकत’ पद का सृजन किया गया तथा दुर्बल सुल्तानों के काल में इस पद का विशेष महत्त्व बढ़ जाता था।
  • एतगीन को पहला ‘नायब-ए-मुमलिकत’ बनाया गया। उसके बाद अलाउद्दीन मसूदशाह शासक बना।
  • 1246 ई. में इल्तुतमिश के छोटे पुत्र नासिरुद्दीन महमूद (1246-66 ई.) को सिंहासन पर बिठाया गया, जिसके पीछे गयासुद्दीन बलबन की शक्ति थी।
  • वह धार्मिक स्वभाव का था। वह कुरान की नकल कर उसे बेचता था तथा उसी से अपना खर्च चलाता था।
  • बलबन (उलुग खां) इल्तुतमिश द्वारा गठित चेहलगान (चालीस) नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का एक सदस्य था, जो इल्बारी तुर्क था। उसने सुल्तान के नाम नायब के रूप में अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली। 
  • 1265 ई. महमूद की मृत्यु के बाद ‘बलबन’ स्वयं सुल्तान की गद्दी पर बैठ गया। 
  • म्ंगोल आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए बलबन ने एक अलग सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-आरिज’ की स्थापना की।
  • उसने अपने दरबार में ‘सिजदा और पाबोस’ की ईरानी प्रथा शुरू की।
  • उसने अपने शत्रुओं के प्रति ‘लौह और रक्त’ की नीति अपनायी। 1286 में उसकी मृत्यु हो गयी।




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