रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद


1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण की स्मृति में की थी। रामकृष्ण परमहंस बंगाल के संत थे, जो कलकत्ता में गंगा के तट पर दक्षिणेश्वर में कालीदेवी के मंदिर में पुजारी थे। वे अनके बार भक्ति में अत्यंत विह्वल होकर अचेत हो जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म के द्वारा भी ईश्वर का साक्षात्कार किया था। उनका मानना था कि संसार के सभी धर्म सच्चे रूप में ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न मार्ग है। रामकृष्ण परमहंस ने सभी धर्मों की एकता, ईश्वर की अनन्य भक्ति और सेवा को महत्त्व प्रदान किया।

विवेकानंद का जन्म 1863 ई. में कलकत्ता में हुआ था। उनका मूल नाम नरेन्द्र दत्त था। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक थे। वे आध्यात्मिक जिज्ञासा से रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आये और उनसे प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गये। गुरु की मृत्यु के बाद उन्होंने संन्यास धारण कर लिया। 1891 में विवेकानंद अकेले भारत भ्रमण पर निकल पड़े। भारत भ्रमण के दौरान उन्हें यहां की गरीबी, भुखमरी तथा दयनीयता से साक्षात्कार हुआ। 
1893 में वे शिकागो के सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका गये। यहां उन्होंने अपने तर्कों के द्वारा पश्चिमी जगत के सामने पहली बार भारत की सांस्कृतिक महत्ता को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया।
इसके बाद उन्होंने अमेरिका और इंग्लैण्ड में भ्रमण कर हिन्दू धर्म का प्रचार किया।
भारत वापस आने पर 1897 में विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। रामकृष्ण मिशन का वैचारिक आधार वेदांत दर्शन था, यथा- ईश्वर निराकार है। वह मानव बुद्धि से परे तथा सर्वव्यापी है। आत्मा ईश्वर का अंश है। विवेकानंद सभी धर्मों के मूल में एकत्व देखते थे। धर्म उस निराकार ईश्वर तक पहुंचने के अलग-अलग रास्ते मात्र है। लेकिन विवेकानंद आध्यात्मिकता से अधिक लौकिक जगत को महत्त्व देते थे। वे मनुष्य की सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानते थे, क्योंकि मानवात्मा में परमात्मा का अंश है।
जहां एक ओर विवेकानंद ने हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की उपलब्धियों को प्रकाशित किया, वहीं उन्होंने तात्कालिक भारतीय समाज में व्याप्त संकीर्णता एवं अंधविश्वास का कड़ा विरोध किया। विवेकानंद ने नारी सम्मान को विशेष महत्त्व दिया। भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा - ‘हम में से अधिकतर अभी न वेदांती है, न पुराणपंथी ओर न ही तांत्रिक। असल में हम हैं छुआछूत पंथी।’ रसोई हमारा मंदिर है। पकाने के बर्तन हमारे उपास्य देवता हैं और मत छुओं मैं पवित्र हूं हमारा मंत्र है। अगर यह एक शताब्दी तक और चलता रहा तो हम पागल खाने में होंगे।
विवेकानंद राष्ट्रीयता के पोषक थे। उन्होंने भारतवासियों में आत्मविश्वास की भावना पैदा की। दुर्बलता को पाप बताया तथा शक्ति की पूजा का आह्वान किया। उन्होंने देश के नवयुवकों से कहा- ‘उठो जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो।’
प्रबल मानवतावादी भावना, राष्ट्रीय एकता तथा धार्मिक-सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के बावजूद रामकृष्ण मिशन कभी बहुत लोकप्रिय ने हो सका। इसका प्रभाव मध्य वर्ग तक ही सीमित था। आम आदमी में यह कभी पैठ नहीं बना सका।
रामकृष्ण मिशन का कलकत्ता के वेल्लूर और अल्मोड़ा के मायावती नामक स्थानों पर मुख्यालय खोला गया।
स्वामी जी ने कहा कि ‘जब तक देश में लाखों लोग, भूखे तथा अज्ञानी हैं, मैं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही समझूंगा जिन्होंने उनकी मेहनत की कमाई से शिक्षा ग्रहण की पर उनकी परवाह नहीं करते।’
स्वामी जी के अनुसार ‘हम मानवता को वहां ले जाना चाहते हैं जहां न वेद है, न कुरान और न ही बाइबिल।’
सुभाष चन्द्र बोस ने स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा है - ‘जहां तक बंगाल का सम्बन्ध है हम विवेकानंद को आधुनिक राष्ट्रीय आंदोलन का आध्यात्मिक पिता कह सकते हैं।’
इण्डियन अनरेस्ट के लेखक चिरोल ने विवेकानंद के उद्देश्यों को राष्ट्रीय आंदोलन का एक प्रमुख कारण माना।
विवेकानंद की बहन (धर्म बहन) सिस्टर निवेदिता का भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान है।
अमरीका में वेदान्त सभाओं की स्थापना की।
रोम्यांरोला ने लिखा -संसार का कोई भी धर्म मनुष्यता की गरिमा को इतने ऊंचे स्वर में सामने नहीं लाता जितना कि हिन्दू धर्म।’

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