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राजस्थानी लोक नृत्य गवरी

राजस्थानी लोक नृत्य गवरी



  • गवरी राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर, सिरोही और बांसवाड़ा क्षेत्र में भीलों का प्रचलित मनोरंजक लोकनृत्य है।
  • भील समुदाय के धार्मिक जीवन में गवरी को विशेष स्थान प्राप्त है।
  • वर्षा ऋतु में भाद्रपद माह से चालीस दिन तक भील समुदाय गवरी नृत्य उत्सव बड़े उल्लास से मनाते हैं। गांव या शहर के चौराहों अथवा खुले आंगन में यह लोकनृत्य आयोजित किया जाता है। यह एक संस्कारपूर्ण पावन लोकनृत्य है। इसमें धार्मिक और सांसारिक कार्यों का मिला-जुला रूप दिखाई देता है।
  • यह राजस्थान का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है जिसे लोक नाट्यों का मेरुनाट्य कहा जाता है। 
  • इस लोक नृत्य के साथ लोक प्रचलित शिव तथा भस्मासुर की कथा जुड़ी हुई है।
  • एक बार भस्मासुर नामक एक असुर ने तपस्या करके भगवान शिव से भस्मी का कड़ा प्राप्त कर लिया। बाद में मदान्ध होकर उस कड़े से जब उसने शिव को ही भस्म करने का प्रयत्न किया तो विष्णु जी ने मोहनी का रूप धारण करके भस्मासुर को मारा।
  • भगवान शिव भीलों के प्रमुख देवता माने जाते हैं अतः भीलों ने गवरी के रूप में उनके जीवन की सर्वाधिक प्रभावशाली घटना को अपनाया और उनके प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का परिचय देने के लिए इस नृत्य का आयोजन आरम्भ किया।
  • गवरी का प्रदर्शन केवल भील लोग ही करते हैं। इस नृत्य के साथ भीलों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और वे ही इसके एक मात्र उपासक, आयोजक एवं अभिनेता कहे जाते हैं। गवरी नृत्य उत्सव भीलों की एकता, दक्षता एवं ग्रामीण जीवन और आदिम जातीय जीवन के सम्बन्धों का सूचक है। यह एक रोचक तथ्य है कि इस उत्सव में सिर्फ पुरुष ही भाग लेते हैं। औरत का अभिनय भी वे स्वयं ही करते हैं।
  • यह उत्सव देवी गौरी के सम्मान में मनाया जाता है, परन्तु स्त्रियों को इस धार्मिक कार्य में भाग लेने योग्य नहीं समझा जाता। भील परिवार का प्रत्येक सदस्य इसमें भाग लेना अपना धार्मिक कर्त्तव्य समझता है। इस नृत्य का प्रदर्शन प्रतिदिन एक ही स्थान पर नहीं होता वरन् विभिन्न गावों की यात्रा करते हुए इसका प्रदर्शन किया जाता है।
  • गवरी अभिनेता पूरे सवा महीने तक एक ही पोशाक धारण किये रहते है।
  • इस नृत्य में मुख्यतः चार प्रकार के पात्रों की अवधारणा होती है। देव कालका तथा शिव एवं पार्वती के साथ ही अन्य पात्र इस प्रकार हैः
  • मानव पात्रः- बुढ़िया, राई, कूट-कड़िया, कंजर-कंजरी, मीणा, नट, बणिया, जोगी, बनजारा-बनजारिन तथा देवर-भोजाई इत्यादि।
  • दानव पात्रः- भंवरा, खडलियाभूत, हठिया, मियावाड़।
  • पशु पात्रः- सुर (सुअर), रीछड़ी (मादा रीछ), नार (शेर) इत्यादि।
  • झामट्या लोक भाषा में कविता बोलता है तथा खटकड़िया उसे दोहराता है। 
  • गांव के बीच किसी खुले स्थान - जैसे खेत, खलिहान, चौराहा या टेकरी में देवी का स्थान बनाया जाता है। जय शंकर महादेव, जय गौरी माई आदि नारों के साथ इस स्थान पर त्रिशूल रूप में शिव व अन्य देवी-देवताओं की स्थापना करके, धूप देकर भोपा द्वारा अपने शरीर में देवी की आत्मा को आमंत्रित किया जाता है।

  • मृदंग तथा जालर के संगीत में सभी मग्न हो जाते है।
  • लोक-जीवन के सांस्कृतिक उन्नयन में लोकनृत्य गवरी का उल्लेखनीय योगदान रहा है। सांस्कृतिक भेदभाव तथा ऊंच-नीच जैसी कोई भावना उन्होंने पनपने नहीं दी है।
  • गवरी की यह सांस्कृतिक निधि हमारी रूढ़ियों, परम्पराओं, रीतियों, विश्वासों, मान्यताओं तथा सम्भ्रान्त चेतनाओं की एक ऐसी सम्पत्ति है जिसमें हमारा लोक-जीवन समृद्ध बना हुआ है।
  • गवरी किसी वर्ग या जाति विशेष की धरोहर नहीं है। उसका क्षेत्र सीमित होते हुए भी वह समग्र लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। आपसी मेलजोल, एकता और सत्य की विजय तथा कला एवं संस्कृति का आदान-प्रदान ही इस नृत्य के मूल में निहित रहा है।


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