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कहानी : वो अग्निकांड...

byDivanshuGS -April 29, 2017
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मैंने अवबोध मस्तिष्क से कुछ यादें संभाली थी कि मेरे परिवार के सदस्य एवं कुछ मजदूर गेहूं के खेत में लगभग फाल्गुन या चैत्र मास के आसपास लावणी कर रहे थें, कि अचानक किसी ने गांव की ओर उठते हुए धुंए को देखकर चीखते हुए पुकारा-
अरे! गांव में धुंआ उठ रही है, जाणे तो कोईके आग्य लग गी... किसी ने कहा तथा गांव की ओर देखा तो आग की लपटें देखकर सब स्तब्ध हो गये। किसी को कोई सुध बुध न रही। सभी गांव की ओर दौड चले।
अरे! चंदन या कुत्ता रोटी का नातना लेकर भाग रहा है या पेसू रोटी खुसका ला... हडबडाहट में मेरे किसी चाचा ने कहा, ओर वे भी गांव की ओर भाग गये।
सबकी दांतली तथा पांत, जो अधूरी थी, छुट गई। हम बालक थे, जो अवबोध थे। आग के खतरों से इतने वाकिफ नही थे, इसलिए हम बेखबर ही रहना चाहते थे, लेकिन किसी बडे आदमी को पास न पाकर हम भी गांव की ओर चल दिये थे।
मैं चिन्तामग्न हो गांव की ओर जा रहा था, अवबोध मन में क्या हलचल चल रही थी, कुछ ज्ञात नही थी। नन्हें कदम गांव की ओर दोपहर में धीमें-धीमें बढ रहे थें। हममें कोई तेज दौड रहा था, तो कोई अपनी मस्ती में चल रहा था। किसी को कोई शरारत सूझी भी तो किसी ने उसका साथ नही दिया, क्योंकि आग का नाम सुनते ही सभी को उससे होने वाले दर्द का अनुभव बचपन की कुछ यादों से अनुभूति देता था।
काका या आग्य कोण के लगी है ? उत्सुक मन से मैंने पूछा लेकिन मुझे इसका कोई जबाव नही मिला, क्योंकि वहां सिर्फ दौडकर उस धुंआ तक शीघ्र पहुंचने की, जैसे उनमें होड मची थी।
रास्ते में क्या हुआ, क्या नही मैं किस प्रकार घर पहुंचा यह भी मस्तिष्क पटल पर धुंधला सा नजर आता है। जैसे ही घर पर पहुंचा तो सिर्फ लोगों के रोने की आवाज आ रही थी। कोई उस आग को देखकर रो रहा था, तो कोई चिल्लाकर कह रहा था, कि अरे, जल्दी पाणी लाओं...
अरे ! घरों के सभी मटके-बासन, सभी .. ‘घबराहट से पूरे षब्द भी नही बोल पा रहे थे।’ सभी के कंठ मानो जेठ की गर्मी की भांति सूख रहे थे। किसी को कुछ सूझ नही रहा था।
कोई, ईश्वर से तो कोई अल्लाह से प्रार्थना करते हुए कह रहा था कि हे भगवान तू अभी बारिश कर दे।
अरे या आग तो सब गांव में फैल जायेगी। कौन क्या कह रहा था ? कोई क्या दुआ कर रहा था। कोई नही जानता कि इस अग्नि से कैसे राहत मिलेंगी।
सबके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी, कोई रूद्धन मन से दुआ करता, तो कोई अपनी छाती पीटकर चिल्लाता हुआ रोता था। उन्हें लग रहा था कि सब जलकर राख हो जायेगा। गांव वाले आग बुझाने के लिए जो यतन बना कर रहे थे।
यह आग किसके घर में थी... सषंकित मन में प्रश्न बनकर राह को जटिल बना रहा था। यह शोर-शराबा तो हमारे घर की ओर से था। मेरी आंखें यह दृष्य देखकर फटी की फटी रह गई। काटो तो खून नही, मेरा शरीर भय से कंपकंपा रहा था, आंखे नम होना चाहती थी, लेकिन मानो आंखों का पानी उस आग की तपन में सूख् गया था। मुख से आवाज, जो रोने के लिए आती थी, वो भी बेजान लगती थी। रोने का तो मानों मैं ढोंग कर रहा था। आंखों में अश्रुधारा की जगह सिर्फ आग की लपटें दिखाई दे रही थी। मैं विस्मय से देखकर रोने की कोशिश करता था, लेकिन यह रूद्धन लोगों के रोने की आवाज को सुनकर उत्पन्न हुआ था।
हृदय बडा अधीर हो रहा था कि यह आग क्यूं लगी ? किसने लगाई ? क्यूं लगाई आदि प्रश्नों को जानने को उत्सुक था। आग की लपटें किस ओर से आ रही थी। ये जानने के लिए मेरे नयन व्याकुल थे तथा लोगों के मुंह की ओर ताक रहे थे। मगर कोई जबाव न पाकर, गांव में कहां तक फैली है, जानने के लिए नन्हें कदम कभी दक्षिण की ओर जाते तो कभी हमारे पीछे की ओर के रास्ते की तरफ जाते। उन्हें चैन नही मिल रहा था, क्योंकि मैंने अग्नि का पहली बार ऐसा विकराल रूप देखा था।
मेरे घरवालों की मुझे सुध नही थी और न ही उन्हें किसी अपने अन्य बच्चों की क्योंकि हम खेतों पर उनके संग थे वे सभी गायों-भैंसों को संभालने के लिए जाते, लोगों से पूंछते तो उन्हें कोई संतोशपूर्ण जबाव नही मिलता था। सबकों आग का विकराल रूप निगलने को आतुर था। लोगों ने टांटों से गाय-भैंसों को पहले ही खोल दिया था। जो सामान वे घरों से निकाल सके, वो उनके पहले ही निकाल चुके थे।
अब आग अपने पूर्ण भयावह रूप में थी। मैं लोगों के इधर-उधर की हलचलों को व्याकुल हो देख व सुन रहा था। थोडी देर रोने के बाद मैं सिर्फ तमाषाबीन बनकर चुपचाप इस दृष्य को देखने लगा।
अरे! सुरेष ‘मेरे तीसरे नम्बर के दादाजी का बडा पुत्र’ टृेक्टर में टृोली जोडकर... कुआं से पानी लेकर आ... किसी ने रूंद्धन स्वर में कहा।
अरे! डृम भी रख लेना, जल्दी भरकर पानी ला। अरे तुम्हारे से भी डृम ले आ। अरे, गुर्जरों की कोठी से लियाओं। वही इंजन चल रह्यों है। किसी बुजुर्ग ने कहां
इस अफरा-तफरी में यदि कोई बालक आग की तरफ जाता तो उसे लोग बुरी तरह लताडते थे। मैं भी जाने की सोचता, लेकिन इस भय से मैं नजदीक नही जा सका।
लोगों के कदमों में जैसे पंख लग गये हो, वे लोग दौडकर जाते और कुओं से पानी खींचकर लाते और आग में डाल देते थे। गांव का प्रत्येक बुजुर्ग से लेकर जवान तक, वृद्ध महिला से लेकर हर जवान महिला तक, यदि कोई किसी का शत्रु था तो वे अपनी शत्रुता भूलकर, वे एक-दूजे से कंधे-से-कंधा मिलाकर आग बुझाने का प्रयत्न कर रहे थे। लेकिन आग अपने उसी अंदाज में जल रही थी।
आग मुख्य रूप से मेरे परिवार में दादाजी के चारों भाइयों में से तीन बडों की पाटोल के उपर रखी सूखी घास ‘लीलोण’ में लगी थी, जोकि वे उसे जानवरों को खिलाने के काम लेते थे। पाटोल काफी जगह में थी। वही हम रहते थे। ये लगभग सभी पाटोल आग की भेंट चढ चुकी थी। वे आग की तपन सह न सकी और एक के बाद एक सभी पट्टियां टूटकर नीचे आ गिरी। कितने टुकडे हुए मालूम न था।
यह भयावह घटना कितनी देर चली, मुझे कुछ ज्ञात नही, मगर वह संध्या तक चली जिसकी तपन सुबह तक भी षांत न हो सकी। मैं थक चुका था। मुझें याद नही लेकिन माता-पिता, चाचा-चाची, दादा-दादी, भाई-बहिनों को एक जगह न पाकर भूख भी खुद से ही मुरझा रही थी। माता की गोद के लिए छोटा-सा तन व्याकुल हो रहा था, ताकि मां की गोद में सुस्ता संकू, लेकिन आग के इस हृदयविदारक दृष्य ने सभी को पागल सा बना रखा था, उन्हें लग रहा था कि उनका जीवन आग से अंधकार में चला गया हो।
जिससे जितना पानी के लिए दौडा जा सका दौडकर पानी लेकर आये, मगर पानी से आग का विकराल रूप संतृप्त न हो सका। लपटें विकराल रूप ले रही थी, लेकिन इस आग ने कितने गिले-शिकवों को मिटाया होगा। मैं भी नही जानता, क्योंकि यह आग हमारे परिवार तथा एक मीणों के बाडें में रखी बाजरें की कडप के ढेर में लगी थी लेकिन इस आग को बुझाने का प्रयास सामूहिक रूप से पूरे गांव का था। मैं अवबोध मन से यह सब देख रहा था तथा मेरे बाल सुलभ मन लोगों के इस प्रयास को किस रूप में देख रहा था, शायद उस कल्पना को मैं याद न रख सका। लेकिन वर्तमान में यह दृष्य मस्तिष्क पटल पर उभरता है, तो लोगों की उस सहानुभूति को तथा उनकी एकजुटता को मैं हल्की मुस्कान एवं नमनीय मुद्रा में प्रणाम करता हूं। यह वह एक जुटता थी जो लोग एक-दूसरे के शत्रु थे, उस शत्रुता को भूलकर निष्कपट भाव से अपना सहयोग दे रहे थे। आज भी मैं उन लोगों के इस प्रयास के प्रति आभारी हूं।
यह घटना 1990 के लगभग की है। जब मैं शायद प्रथम कक्षा में पढने जाता था। उस समय यातायात एवं फोन की सुविधा न होने के कारण अग्निशमन यंत्र अधिकारियों को सूचना शीघ्र न दे सके। लेकिन जब उन्हें किसी ने सूचना दी, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मुझे याद है वह लगभग सांय के समय हमारे गांव पहुंची थी। उसे देखने के लिए लोग कौतूहल वश उसके चारों ओर से घेर लिया गया। यह हम लोगों के लिए अनोखी थीं। जब भी मैं इस घटना को याद करता हूँ मेरी रूह काँप उठती है।

लेखक - राकेश सिंह राजपूत

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