अलि तेरा रोना व्यर्थ


विपदाओं में मधुवन हैं,
अलि तेरा रोना व्यर्थ,
हरित उपवन की चाह,
क्या ऐसी है ?
रौंदा जाता नरपद ताल से।

गैरों के लिए भी क्या,
कोई अश्रु बहता है, अलि ?
ये मति भ्रम कैसे ?
क्षणिक जीवन में रोता क्यूं ?

बंधनहीन तू,
बंधन कैसा रोने का पाला।
बंधन में तों नर भी नहीं बंधा,
सच मानों गैरों से आलिंगन करता।

बिन बंधन के सरताज है,
भ्रम सिद्धांतों का पाले है,
वरन् कितनों पे डोरे डाले हैं।

बंधनहीन पशुवृत्ति है,
अलि तेरी भी यही गति है।
नर भी उस ओर रूख किये है,
भ्रम है महत्वाकांक्षा का,
सभ्य होने की चाह का।

पर बंधन से परे,
कोई सभ्य बना है,
अलि! मेरा-तेरा व्यर्थ रोना।

तू रोता है,
मधुविलास छीनने से,
मैं रोता मर्यादा ह्रास से।
तू बंधनहीन,
मैं बंधन पाले।

विपरीत कर दूं तो सब,
नर समाज घुल-मिल जाते,
धर्म का बंधन तुम पे हो,
मधुविलास नर का हो।

रतिविलास के इस प्रागंण में,
न प्रेम का कोई बंधन होगा।
बेवफा के लिए न कोई बदनाम होगा।

न रिश्तों का बंधन होगा,
न तारिफ किसी के यौवन की,
न कोई प्रिय मिलन को व्याकुल होगा,
रति के लिए तो कायालिंगन होगा।

किसी को न प्रेम विरह सतायेगी,
ने कोई विवाह को आतुर होगा।
न रतिविलास में मारा-मारी होगी,
चकवा-चकवी विरह तब नहीं होगा।

अलि! नर बंधनहीन से,
प्रकृति विलास तरूण हो,
कुरंग कलोल कुंठित न होगा,
भौतिकता का अवसान होगा।
सौतन से मिलन नहीं होगा।

अरे! अलि ये कल्पना लोक कैसा,
सच में ऐसा नही होता,
वरन् प्रकृति तरूण हो,
अंगडाई ले उठे।
अलि तेरे मधुविलास से,
कच्ची कलियां पल्लवित हो,
प्रकृति का श्रृंगार कर,
नव संतति को जन्म।



कवि राकेश सिंह राजपूत 

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