हिन्दी गद्य -कहानी

हिन्दी गद्य -कहानी

  • 1826 ई. में पं. जुगल किशोर शुक्ल के सम्पादकत्व में हिन्दी का पहला पत्र ‘‘उदन्त मार्तण्ड’’ नाम से कानपुर से प्रकाशित हुआ।
  • ‘‘बनारस अखबार’’ (राजा शिवप्रसाद के सम्पादकत्व में), 
  • ‘‘सुधाकर’’ (तारामोहन मिश्र के सम्पादकत्व में), 
  • ‘‘बुद्धिप्रकाश’’ (मुंशी सदासुख लाल के सम्पादन में) आदि अनेक पत्र निकले जिन्होंने हिन्दी गद्य की परम्परा को आगे बढ़ाया।
  • आधुनिक हिन्दी गद्य का सही विकास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के उदय के साथ होता है। भारतेन्दु ने अपनी गद्य-शैली को अत्यन्त व्यावहारिक और समय की आवश्यकता के अनुरूप ढ़ाला। 
  • उन्होंने हिन्दी को न तो संस्कृत तत्सम शब्दावली से बोझिल होने दिया न उर्दू- फारसी के शब्दों के सार्थक प्रयोग को हतोत्साहित किया। 
  • उन्होंने विषयवस्तु, भाव-विशेष एवं रूप-विशेष के अनुसार विभिन्न प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया है। 
  • प्रणय, विरह या शोक के प्रसंगों में उनकी शैली अत्यन्त कोमल और मधुर हो जाती है तो हास्य के प्रसंगों में चुलबुलेपन से युक्त हो जाती है। 
  • वस्तुतः भारतेन्दु भाषा के मर्म को समझने वाले प्रतिभाशाली रचनाकार थे तथा उसे विषय, भाव एवं प्रसंग के अनुसार ढ़ालने में माहिर थे। 
  • भारतेन्दु जी के समकालीनों में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द, राजा लक्ष्मण सिंह ऐसे लेखक रहे हैं जिन्होंने हिन्दी गद्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
  • इस काल में हिन्दी गद्य के विकास में आर्य समाज आन्दोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस आन्दोलन ने धर्म, समाज, शिक्षा, साहित्य आदि क्षेत्रों में वैचारिक क्रान्ति की। 
  • बौद्धिक चेतना का संबंध गद्य से सीधा होता है, क्योंकि विचार- विमर्श, तर्क-वितर्क, चिन्तन-मनन के लिए जो बौद्धिक प्रयास होते हैं वे गद्य में ही संभव है। 
  • दयानन्द सरस्वती ने अपना ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ हिन्दी में लिखा जिसमें उन्होंने वैदिक धर्म की व्याख्या के बाद विभिन्न वेद-विरोधी धर्म-सम्प्रदायों का खण्डन किया है।
हिन्दी गद्य के क्षेत्र में 
  • आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने नयी गति प्रदान की। हिन्दी का प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी के स्वरूप का स्थिरीकरण जैसे द्विवेदीजी के जीवन का लक्ष्य था। 
  • उन्होंने 1900 ई. में ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। 
  • एक समय ‘सरस्वती’ पत्रिका भारत की हिन्दी चेतना की सबसे सशक्त मंच बन गयी। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने समकालीन लेखकों को प्रेरित कर नये-नये विषयों पर लिखवाया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि हिन्दी की प्रगति तभी सम्भव है, जब उसमें विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, तकनीक जैसे विषयों में साहित्य उपलब्ध हो। गद्य के संबंध में उन्होंने एकरूपता, व्याकरण के दोष-परिष्कार,, शब्दों के उपयुक्त प्रयोग आदि का पूरा ध्यान दिया।
गद्य की विविध विधाएं
  • द्विवेदी युग में हिन्दी गद्य का पर्याप्त परिष्कार हुआ और अनेक प्रकार की गद्य विधाएं भी विकसित हुई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद विविध विकसित राष्ट्रों के साथ सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक सम्पर्क बढ़ जाने से हिन्दी साहित्य में नये-नये तत्व विकसित हुए। गद्य शैली और गद्य-विधा का प्रयोग और विकास भी बडी़ तीव्रता से हुआ। औद्योगीकरण, महानगरीय सभ्यता, बदले हुए मानसिक परिवेश और परिवर्तित राजनैतिक व्यवस्था के कारण इस काल के साहित्य की विविध गद्य-विधाओं का अलग-अलग परिचय ही अधिक स्पष्ट और सुगम है।
कहानी 
  • कहानी इस युग की सबसे सशक्त गद्य-विधा है, जिसका विकास बहुत तीव्रता से हुआ है। इसकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। भारतीय साहित्य में तो इसका प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में बताया गया है। इसका स्वरूप निरन्तर बदलता रहा है। 
  • कहानी में जीवन की किसी एक घटना का चित्रण रहता है। 
  • मानव चरित्र के किसी एक बिन्दु को प्रकाशित करना कहानी का लक्ष्य होता है। इसमें कथावस्तु, पात्र, देश-काल और परिस्थिति का वर्णन रहता है। यह कहानी के प्रमुख तत्त्व कहे गए हैं। 
  • हिन्दी में आधुनिक कहानी का जन्म 1901ई. से माना जाता है- 

  1. उद्भवकाल (1901-1915 ई.), 
  2. विकासकाल (1916-1935 ई.), 
  3. उत्कर्षकाल (1936-1950 ई.), 
  4. प्रगति-प्रयोगकाल (1950 ई.के पश्चात्)। 
  • इस अन्तिम काल में युगीन संक्रमण के दबावों के परिणामस्वरूप तनाव, मूल्यों की तलाश तथा विविध सन्दर्भों की कहानियांँ लिखी गई।

Post a Comment

0 Comments