मारवाड़ का राठौड़ वंश



  • राजस्थान के उत्तरी और पश्चिमी भागों में राठौड़ राज्य स्थापित थे। इनमें जोधपुर और बीकानेर के राठौड़ राजपूत प्रसिद्ध रहे हैं। जोधपुर राज्य का मूल पुरुष राव सीहा था, जिसने मारवाड़ के एक छोटे भाग पर शासन किया। परन्तु लम्बे समय तक गुहिलों, परमारों, चौहानों आदि राजपूत राजवंशों की तुलना में राठौड़ों की शक्ति प्रभावशाली न हो पाई थी।
  • बीठू आहड पाली के देवल अभिलेख के अनुसार राव सीहा कुवंर सेतराम का पुत्र था।


राव चूंडाः- 

  • राठौडों का प्रथम बडा शासक वीरमदेव का पुत्र 
  • मण्डौर किला जीता, नागौर आदि राज्यों को जीतकर मारवाड की 
  • बेटी हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से किया।
  • राठौड़ शासक राव जोधा ने नयी राजधानी जोधपुर में 1459 में स्थापित की तथा इस सुरक्षित रखने के लिए चिड़िया टूंक पहाडी पर नया दुर्ग मेहरानगढ़ बनवाया।
  • राव गांगा (1515-1532) ने खानवा के युद्ध में 4000 सैनिक भेजकर सांगा की मदद की थी। इस प्रकार सांगा जैसे शक्ति सम्पन्न शासक के साथ रहकर राव गांगा ने अपने राज्य का राजनीतिक स्तर ऊपर उठा दिया। 
  • जोधपुर में गांगालाव तालाब और गांगा की बावडी बनवायी।

राव मालदेव ‘हशमतवाला शासक’
  • राव मालदेव गांगा का ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने समय का एक वीर, प्रतापी, शक्ति सम्पन्न शासक था। उसके समय में मारवाड़ की सीमा हिण्डौन, बयाना, फतेहपुर-सीकरी और मेवाड़ की सीमा तक प्रसारित हो चुकी थी। मालदेव की पत्नी उमादे (जैसलमेर की राजकुमारी) इतिहास में ‘रूठी रानी’ के नाम से विख्यात है। विवाहः 1536 में जैसलमेर के शासक रावल लूणकरण की पुत्री उमादे ‘रूठी-रानी’ से हुआ। वह विवाह की पहली रात से ही अपने पति से रूठ गई, जो आजीवन ‘रूठी रानी‘ के नाम से प्रसिद्ध रही और तारागढ दुर्ग, अजमेर में अपना जीवन गुजारा।
  • मालदेव ने साहेबा के मैदान में बीकानेर के राव जैतसी को मारकर अपने साम्राज्य विस्तार की इच्छा को पूरी किया परन्तु मालदेव ने अपनी विजयों से जैसलमेर, मेवाड़ और बीकानेर से शत्रुता बढ़ाकर अपने सहयोगियों की संख्या कम कर दी। 
  • उदयसिंह को राणा घोषित किया।
  • 1541 में बीकानेर नरेश राव जैतसी को हरा बीकानेर पर अधिकार कर लिया।
  • पहोबा/ साहेबा का युद्ध 1542 ई. - बीकानेर के राव जैतसी से साहेबा के मैदान में जैतसी ने शेरशाह से सहायता मांगी।
  • शेरशाह से हारने के बाद हुमायूँ मालदेव से सहायता प्राप्त करना चाहता था परन्तु वह मालदेव पर सन्देह करके अमरकोट की ओर प्रस्थान कर गया। मालदेव की सेना को 1544 में गिरि-सुमेल के युद्ध में शेरशाह सूरी का सामना करना पड़ा। 
  • कहा जाता है कि इस युद्ध के पूर्व शेरशाह ने चालाकी का सहारा लेते हुये मालदेव के दो सेनापति जेता और कूंपा को जाली पत्र लिखकर अपनी ओर मिलाने का ढोंग रचा था। इस युद्ध में स्वामिभक्त जेता और कूंपा मारे गये तथा शेरशाह की विजय हुई। युद्ध समाप्ति के पश्चात् शेरशाह ने कहा था ‘‘एक मुट्ठी भर बाजरा के लिए वह हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।’’
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चन्द्रसेन 
  • मालदेव के पुत्र चन्द्रसेन ने जो एक स्वतन्त्र प्रकृति का वीर था, अपना अधिकांश जीवन पहाड़ों में बिताया परन्तु अकबर की आजीवन अधीनता स्वीकार नहीं की। वंश गौरव और स्वाभिमान, जो राजस्थान की संस्कृति के मूल तत्व हैं, वह हम चन्द्रसेन के व्यक्तित्व में पाते हैं। 
  • महाराणा प्रताप ने जैसे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की, उसी प्रकार चन्द्रसेन भी आजन्म अकबर से टक्कर लेता रहा। 
  • चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद अकबर ने चन्द्रसेन के बडे़ भाई मोटा राजा उदयसिंह को 1583 में मारवाड़ का राज्य सौंप दिया। इस प्रकार उदयसिंह मारवाड़ का प्रथम शासक था। उदयसिंह ने 1587 में अपनी पुत्री मानबाई (जोधपुर की राजकुमारी होने के कारण यह जोधाबाई भी कहलाती है) का विवाह जहाँगीर के साथ कर दिया। यह इतिहास में ‘जगतगुसाई’ के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी वंश के गजसिंह का पुत्र अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपने साहस और वीरता के लिए प्रसिद्ध है। आज भी इसके नाम के ‘ख्याल’ राजस्थान के गाँवों में गाये जाते हैं।

जसवन्त सिंह
  • जसवन्त सिंह ने धर्मत के युद्ध (1658) में औरंगजेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से भाग लिया था परन्तु शाही सेना की पराजय ने जसवन्तसिंह को युद्ध मैदान से भागने पर मजबूर कर दिया। जसवन्तसिंह खजुआ के युद्ध (1659) मं शुजा के विरुद्ध औरंगजेब की ओर से लड़ने गया था परन्तु वह मैदान में शुजा से गुप्त संवाद कर, शुजा की ओर शामिल हो गया, जो उसके लिए अशोभनीय था। 
  • हालांकि वह जैसा वीर, साहसी और कूटनीतिज्ञ था, वैसा ही वह विद्या तथा कला प्रेमी भी था। उसने ‘भाषा-भूषण’ नामक ग्रंथ लिखा। मुँहणोत नैणसी उसका मंत्री था। नैणसी द्वारा लिखी गई ‘नैणसी री ख्यात’ तथा ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ राजस्थान की ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अध्ययन के अनुपम ग्रंथ हैं। 
  • जसवन्तसिंह मारवाड़ का शासक था जिसने अपने बल और प्रभाव से अपने राज्य का सम्मान बनाये रखा। मुगल दरबार का सदस्य होते हुए भी उसने अपनी स्वतन्त्र प्रकृति का परिचय देकर राठौड़ वंश के गौरव और पद की प्रतिष्ठा बनाये रखी। राठौड़ दुर्गादास ने औरंगजेब का विरोध कर जसवन्तसिंह के पुत्र अजीतसिंह को मारवाड़ का शासक बनाया। परन्तु अजीतसिंह ने अपने सच्चे सहायक और मारवाड़ के रक्षक, अदम्य साहसी वीर दुर्गादास को, जिसने उसके जन्म से ही उसका साथ दिया था, बुरे लोगों के बहकाने में आकर बिना किसी अपराध के मारवाड़ से निर्वासित कर दिया। उसकी यह कृतघ्नता उसके चरित्र पर कलंक की कालिमा के रूप में सदैव अंकित रहेगी।
  • दुर्गादास ने अपनी कूटनीति से औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर को अपनी ओर मिला लिया था। उसने शहजादा अकबर के पुत्र बुलन्द अख्तर तथा पुत्री सफीयतुनिस्सा को शरण देकर तथा उनके लिए कुरान की शिक्षा व्यवस्था करके साम्प्रदायिक एकता का परिचय दिया। वीर दुर्गादास राठौड़ एक चमकता हुआ सितारा है, जिससे इतिहासकार जेम्स टॉड भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका। जेम्स टॉड ने उसे ‘राठौड़ों का यूलीसैस’ कहा है।
  • जोधपुर के राव जोधा के पुत्र राव बीका ने 1488 में बीकानेर बसाकर उसे राठौड़ सत्ता का दूसरा केन्द्र बनाया। बीका के पुत्र राव लूणकर्ण को इतिहास में ‘कलयुग का कर्ण’ कहा गया है। बीकानेर के जैतसी का बाबर के पुत्र कामरान से संघर्ष हुआ, जिसमें कामरान की पराजय हुई। 
  • 1570 में अकबर द्वारा आयोजित नागौर दरबार में राव कल्याणमल ने अपने पुत्र रायसिंह के साथ भाग लिया। तभी से मुगल सम्राट और बीकानेर राज्य का मैत्री संबंध स्थापित हो गया। बीकानेर के नरेशों में कल्याणमल प्रथम व्यक्ति था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
  • महाराजा रायसिंह ने मुगलों की लिए गुजरात, काबुल और कंधार अभियान किये। वह अपने वीरोचित तथा स्वामिभक्ति के गुणों के कारण अकबर तथा जहाँगीर का विश्वास पात्र बना रहा। रायसिंह ने बीकानेर के किले का निर्माण करवाया, जिस पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है। रायसिंह स्वभाव से उदार तथा दानवीर शासक था। इसी आधार पर मुंशी देवीप्रसाद ने उसे ‘राजपूताने का कर्ण’ कहा है। 
  • बीकानेर महाराजा दलपतसिंह का आचरण जहाँगीर के अनुकूल न होने के कारण जहाँगीर ने उसे कैद कर मृत्यु दण्ड दिया था। महाराजा कर्णसिंह को ‘जंगलधर बादशाह’ कहा जाता था। इस उपाधि का उपयोग बीकानेर के सभी शासक करते हैं।
  • महाराजा अनूपसिंह वीर, कूटनीतिज्ञ और विद्यानुरागी शासक था। उसने अनूपविवेक, कामप्रबोध, श्राद्धप्रयोग चिन्तामणि और गीतगोविन्द पर ‘अनूपोदय’ टीका लिखी थी। उसे संगीत से प्रेम था। उसने दक्षिण में रहते हुए अनेक ग्रंथों को नष्ट होने से बचाया और उन्हें खरीदकर अपने पुस्तकालय के लिए ले आया। कुंभा के संगीत ग्रन्थों का पूरा संग्रह भी उसने एकत्र करवाया था। आज अनूप पुस्तकालय (बीकानेर) हमारे लिए अलभ्य पुस्तकों का भण्डार है, जिसका श्रेय अनूपसिंह के विद्यानुराग को है। दक्षिण में रहते हुये उसने अनेक मूर्तियों का संग्रह किया और उन्हें नष्ट होने से बचाया। यह मूर्तियों का संग्रह बीकानेर के ‘‘तैतीस करोड़ देवताओं के मंदिर’’ में सुरक्षित है।
  • किशनगढ़ में भी राठौड़ सत्ता का अलग केन्द्र था। यहाँ का प्रसिद्ध शासक सावन्त सिंह था, जो कृष्ण भक्त होने के कारण ‘नागरीदास’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसके समय किशनगढ़ में चित्रकला का अद्भुत विकास हुआ। किशनगढ़ चित्रशैली का प्रसिद्ध चित्रकार ‘निहालचन्द था, जिसने विश्व प्रसिद्ध ‘बनी-ठणी’ चित्र चित्रित किया।


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