सल्तनत कालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला

सल्तनत कालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला

Saltant kalin sthapatya kala

  • सल्तनत काल में आकर कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में हिन्दू इस्लामी संस्कृतियों के मध्य समन्वय अधिक परिलक्षित होता है।

गुलाम वंश की स्थापत्य एवं वास्तुकला

  • गुलमावंश का शासनकाल हिन्दू इस्लामी वास्तुकला के विकास का प्रारंभिक चरण था। इस चरण में तुर्क शासकों ने भारतीय इमारतों को ही संशोधित करके या इन्हें तोड़कर मंदिर बनवाया था। इसी प्रकार अजमेर में ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ का निर्माण संस्कृत विद्यालयों को तोड़कर किया गया था।
  • इस काल में कुतुबमीनार पहली इमारत है जो नये ढ़ग से निर्मित हुई और इसमें इस्लामी शैली के प्रभाव प्रकट होते हैं।
  • ‘सुल्तानगढ़ी मकबरा’ प्रथम सल्तनत कालीन मकबरा है।
  • सर्वप्रथम बलवन के मकबरे में मेहराब का वास्तविक रूप दिखाई देता है।
  • ‘कुव्वत उल इस्लाम’ मस्जिद भारत में मुस्लिम स्थापत्य कला की प्रथम इमारत है। साथ ही यह इंडो-इस्लामिक शैली का पहला ऐसा उदाहरण है जिसमें स्पष्ट हिन्दू प्रभाव दिखाई देता है।
  • बलबन की मकबरा शुद्ध इस्लामिक पद्धति द्वारा निर्मित भारत का पहला मकबरा है।
कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद  
  • इसका निर्माण दिल्ली में कुतुबद्दीन ऐबक ने पृथ्वीराज चौहान पर विजय प्राप्त करने की स्मृति में दिल्ली में 1192 ई. में कराया। भारत में मुस्लिम स्थापत्य कला का पहला भवन, जिसमें हिन्दू प्रभाव दिखाई देता है। 
  • यह पहले जैन मंदिर एवं बाद में विष्णु मंदिर था। सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने समय में इस मस्जिद के ‘सहन’ (आंगन) को और विस्तृत कर दिया। 
  • अलाउद्दीन खिलजी ने इसके इबादतखाना को और भी विस्तृत कराया तथा इसके अनेक स्तम्भों पर कुरान की आयतें भी अंकित करवाई। पूर्ववर्ती जैन और विष्णु के स्तंभ, तोरण, छत इत्यादि का प्रयोग मस्जिद की सामग्रियों के रूप में हुआ था। इसमें ‘धरण’ और ‘कोष्ठकों’ का प्रयोग किया गया था, जो भारतीय स्थापत्य कला के अंग हैं।

कुतुबमीनार

  • कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली में ऐबक द्वारा मुअज्जिन द्वारा अजान देने के लिए करवाया गया था, जो उस पर चढ़कर नमाज के लिए अजान दिया करता था। इसकी ऊंचाई 242 फीट है और नीचे से ऊपर की ओर पतली होती चली गई है। 
  • कुतुबमीनार में मूल रूप में चार मंजिलें थीं परंतु फिरोज तुगलक के काल में इसका चौथा तल्ला छतिग्रस्त हो गया था जिसे तुड़वाकर उसके स्थान पर दो मंजिलों का निर्माण कराया। जिसके कारण इसमें अब पांच मंजिलें हैं।
  • सिकंदर लोदी के समय में इसके मीनारों की मरम्मत की गई। इसकी पहली मंजिल सितारों की आकृति की भांति है तथा यह गोल और बांसुरीनुमा है। इसकी दूसरी मंजिल वृत्ताकार है। इसकी तीसरी मंजिल पूरी तरह सितारेनुमा है। इसकी चौथी मंजिल गोलाकार है। मीनार की अधिकांश मंजिलों के निर्माण में लाल पत्थरों का अधिकाधिक प्रयोग किया गया है।

अढ़ाई दिन का झोपड़ा, अजमेर

  • कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसका निर्माण 1200 ई. में कराया। संभवतः इसका निर्माण अढ़ाई दिन में होने के कारण इसका नाम ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ पड़ा। 
  • इसका निर्माण कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की पद्धति पर हुआ है। इसमें मेहराबदार पर्दा इल्तुतमिश ने लगवाया था। यह पहले एक मठ (संस्कृत विद्यालय) था। चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव के नाटक ‘हरकेलि’ की कुछ पंक्तियां इसकी दीवारों पर अंकित है।
खिलजी कालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला
  • इस चरण में इस्लामी शैली का प्रभाव बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। इस काल में डाटदार मेहराब और गुंबद का प्रयोग पूरी तरह स्थापित हो चुका था। यद्यपि खिलजी काल के भवनों की संख्या अधिक नहीं है किन्तु इसमें अलंकरण को विशेष महत्व दिया गया है। अलाई दरवाजा इस दृष्टिकोण से अद्वितीय है और सर जान मार्शल के शब्दों ‘हिन्दू इस्लामी’ स्थापत्य का सबसे सुंदर रत्न है। इस काल के भवनों में सुंदरता, सुडौलता तथा अनुरूपता थी, किंतु इसका झुकाव भारतीयता की ओर था।
  • अलाई दरवाजा में पहली बार वैज्ञानिक आधार के गुंबद का निर्माण सफल ढंग से किया गया। इसका निर्माण लाल पत्थरों तथा संगमरमर के द्वारा हुआ है।
  • जमात खाना मस्जिद का निर्माण लाल पत्थरों से हुआ था।
अलाई दरवाजा 
  • दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी ने इसका निर्माण कुतुबमीनार के निकट 1311 ई. में करवाया। 
  • इसका निर्माण लाल पत्थरों तथा संगमरमर के द्वारा हुआ है। इसमें अलंकरण की गहनता इतनी अधिक है कि एक इंच भी स्थान खाली नहीं दिखता। 
  • अलाई दरवाजा के निर्माण में पहली बार सही व वैज्ञानिक विधि का इस्तेमाल किया गया है। मार्शल ने लिखा है- ‘अलाई दरवाजा इस्लामी स्थापत्य कला के खजाने का सबसे सुंदर हीरा है।’
तुगलककालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला
  • तुगलक वंश के शासकों ने अलंकरण एवं भव्यता (खिलजी काल) के स्थान पर सादगी तथा गंभीरता पर विशेष बल दिया। तुगलक काल में धार्मिक भावनाओं और धन की कमी के कारण इमारतों की विशेषता ‘ढ़लवा दीवारें’ थीं, जिन्हें ‘सलामी’ कहा जाता था। परंतु फिरोज तुगलक द्वारा बनवाई गई इमारतों में महंगा लाल पत्थर के स्थान पर सस्ता, आसानी से उपलब्ध मटमैला पत्थर लगाते थे। फिरोज तुगलक की सभी इमारतों में अलंकरण के लिए कमल के नमूने का प्रयोग हुआ है।
सैय्यद तथा लोदी वंश कालीन स्थापत्यकला
  • सैय्यद काल के अष्टकोणीय मकबरे अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। इन मकबरों की साज-सज्जा में नीली टाइलों का प्रयेाग किया गया है। गुंबद पर कमल, गुलदस्ते तथा अन्य सजावटी स्वरूपों के व्यापक प्रयोग ने बाद की शैली को भी काफी हद तक प्रभावित किया है।
  • लोदी वंश के शासकों को भी स्थापत्यकला के प्रति विशेष रूचि नहीं थी, फिर भी सैय्यद वंश की अपेक्षा इसे काल में अनेक मकबरों तथा मस्जिदों का निर्माण हुआ। लोदियों ने एक और शैली का प्रयोग किया वह थी इमारतों को, विशेषतः मकबरों को, ऊंचे चबूतरों पर बनाना। कुछ मकबरे उद्यानों के मध्य में बनाए गए हैं। दिल्ली का लोदी गार्डन इसका सुन्दर उदाहरण है।
  • लोदीकाल में मकबरों की अधिकता के कारण इसे ‘मकबरों का काल’ भी कहा जाता है। सिकंदर लोदी के समय एक नई शैली की शुरूआत हुई जिसमें एक गुंबद के स्थान पर दोहरे गुंबद का निर्माण प्रारंभ हुआ। लोदियों की इमारतों की कुछ विशेषताओं को बाद में मुगलों ने भी अपनाया। शाहजहां द्वारा निर्मित ताजमहल में इस शैली का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है।


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