प्रकृति पूजक कभी काफिर नहीं हो सकते


कराग्रे वस्ते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। कर मूले तू गोविन्द:, प्रभाते कर दर्शनम्।।
समुद्र वस्ने देवी पर्वत स्तन मण्डिते, विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यम्, पाद स्पर्श क्षमस्वमेव।।
इस श्लोक से साफ झलकता है कि भारतीय संस्कृति जिसके जन-मन के मूल में प्रकृति बसी हो, जिसके जनमानस के हर कार्य प्रकृति के सानिध्य में प्रारम्भ होते हैं और जिस प्रकृति की गोद में हर धर्म फल-फूल रहा हो, वहां के लोग किसी अन्य धर्मों के अनुसार कैसे काफिर हो सकते हैं। जिस संस्कृति ने अपने दैनिक जीवन में प्रकृति को ही सर्वोपरि माना हो, वह कभी काफिरों की संस्कृति नहीं हो सकती। जिस सभ्यता के लोग प्रातःकाल से ही उसे प्रकृति के स्वरूपों का अपने आराध्यों से समागम कर पूजते हैं। वे प्रातःकाल उस धरती पर पैर रखने से पहले उसे प्रणाम करते हैं जो धरती समस्त जगत में समान है। उस धरती पर वे लोग भी निवास करते है जो अन्य धर्मों को काफिर कहते हैं। भारतीय धरती को मां की तरह पूजते हैं उसे सुबह प्रणाम कर पैर रखते हैं ताकि धरती मां उनकी गलतियों के लिए माफ कर सकें।
अगर हम मानव के विकास की प्राचीन संस्कृति को देखें तो आरम्भ में हर सभ्यता के लोगों ने प्रकृति को ही सर्वोपरि माना है। यदि हम मिस्र सभ्यता, यूनानी (ग्रीक), रोमन, चीनी आदि के इतिहास को अच्छे से एवं उदार हृदय से पढ़ें और आत्मसात करे तो हर संस्कृति में प्रकृति पूजा के गुण स्वतः ही देखने को मिलते हैं। वहीं भारतीयों की तरह सूर्योपासना, चन्द्रोपासना, पृथ्वी पूजा, जल देवता और वायु देवता आदि की पूजा के प्रमाण किसी अन्य रूप और अन्य विश्वास को इंगित करता है, लेकिन प्रयोजन एक ही है मानव की सुख-समृद्धि को बढ़ाना। 
प्रारम्भिक दौर में मानव महत्त्वाकांक्षाहीन था अतः उसने कभी प्रकृति से परे सोचा नहीं था, लेकिन समय के साथ-साथ मानव संतति की वृद्धि से मानव-मानव में महत्त्वाकांक्षा जागी और हर कोई श्रेष्ठ व्यक्ति अधिक से अधिक लोगों को अपने सिद्धान्तों में बांधने वाला बना। प्राचीन काल में प्रकृति पूजा को उन महत्त्वाकांक्षियों ने विलुप्त कर अपने मतों का प्रचार-प्रसार कठोरता से करने लगे। यहां किसी धर्म विशेष की बुराई नहीं, बल्कि समस्त मानव को एक सूत्र में बांधने की बात है। सभी धर्म धरती को गोद में पलते हैं और उसके अनुयायी धरती से पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों से अपनी भूख शांत करते हैं। इतना समान होने के बाद भी हम मानव धर्मों को लेकर द्वेष भाव रखते हैं। 
यदि हम भारतीय संस्कृति की बात करें तो आज भी काफी अंशों में प्रकृति पूजा के उदाहरण देखने का मिलते है। हमने प्रकृति पूजा को त्यागा, पर कुछ अंशों में, परन्तु अन्य सभ्यताओं मे उसका अंश नाममात्र भी नहीं मिलता है। उल्टे भारतीयों को रूढ़िवादी, मूर्तिपूजक काफिर न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। भारतीय संस्कृति में मूर्तिपूजा से मानव को कुछ समय अपना ध्यान सब और से हटाकर वहीं केन्द्रित करने से था ताकि मन को शांति मिल सके और किसी समस्या का समाधान पा सके।

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